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हैं।' इसका अर्थ यही है कि साधु-वेष धारण करने मात्र से ही साधुता नहीं आ जाती । वह तो आचरण से आती है । साधु होकर भी यदि कोई साधुत्व का सम्यग् पालन नहीं करता है तो वह दम्भ है। उससे तो वह गृहस्थ भी श्रेष्ठ है, जो अपनी मर्यादा का सम्यग् पालना करता है । आचार्य भिक्षु स्वामी ने इस बात को एक बड़े सुन्दर उदाहरण से समझाया है । उन्होंने कहा है- एक व्यक्ति उपवास करता है और उसको और पूर्णरूप से निभाता है । दूसरा पंचोला ( पांच दिन का लगातार व्रत) करता है । परंतु उसमें दूसरे और चौथे दिन भोजन कर लेता है। पूछने पर पंचोला कहता है । तत्व-दृष्टि से दोनों में उपवास करने वाला श्रेष्ठ है । क्यों ? इसलिए कि उसने जितना नियम लिया था, उसका पूर्ण रूप से पालन किया। दूसरा कहने को पंचोला कहता है, परन्तु बीच में उसे दो बार तोड़ने से वह व्रत भंग का दोषी बन गया । सार-संक्षेप यह कि व्रतों को पालने वाला महान् होता है, न कि अधिक लेने वाला | जैनदर्शन में गुणों की पूजा होती है, व्यक्ति या जातिविशेष की नहीं ।
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मानवता मुसकाए
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