________________
निवृत्ति का आनन्द प्रवृत्ति में कहां
तेरहवें गुणस्थान में आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बन जाती है । पर सर्वथा अक्रिय नहीं बनती। क्रमश: मन, वचन और काययोग को रोकती है, फिर चवदहवें गुणस्थान में आते ही सर्वथा अयोग हो जाती है। 'अयोग' शब्द के दो अर्थ होते हैं। नालायक को भी अजोग (अयोग) कहते हैं और स्थिर को भी प्राकृत में अयोग कहते हैं। संस्कृत में इनके दो शब्द बन जाते हैं--- अयोग्य, अयोग । प्राकृत में एक शब्द के अनेक अर्थ हो जाते हैं । जैसे- अप्प । यह एक शब्द ही आत्म, अल्प और अभाव- इन तीनों अर्थों में व्यवहृत होता है। इसी तरह यहां अयोग का अर्थ स्थिरता है।
अयोग निष्क्रियता में जो आनन्द है, वह सक्रियता में नहीं हो सकता। मौन में जो आनन्द है, वह बोलने में कैसे हो सकता है। मैं मौन किया करता हूं। हालांकि मर्यादा-महोत्सव की कार्य-व्यस्तता के कारण वह क्रम आजकल छूट-सा गया है। पर इससे मैं कोई भार महसूस करता होऊ, ऐसी बात बिलकुल भी नहीं है । यह तो मेरा कर्तव्य है और अपने कर्तव्य-पालन में भार कैसा, बल्कि यह तो मेरे लिए आत्म-तोष का विषय है । यदि कर्तव्य-पालन नहीं करूं तो क्या कर्तव्य से च्युत नहीं हो जाऊंगा। फिर भी अपने अनुभव के स्तर पर यह निश्चित रूप में कह सकता हूं कि मौन का आनन्द बोलने के आनन्द से कहीं ऊंचा है। अतः सबको अक्रिय रहने की साधना भी करनी चाहिए।
४२
मानवता मुसकाए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org