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क्रिया-अक्रिया
२०. योग से अयोग की ओर
नत्थि किरिया अकिरिया वा नेव सन्नं निवेसए । अस्थि किरिया अकिरिया वा एव सन्नं निवेसए ||
ऐसा मत सोचो कि क्रिया-अक्रिया नहीं हैं । पर ऐसा सोचो कि किया है, अक्रिया भी है । सांख्य दर्शन के अनुसार आत्मा सर्वव्यापक है । अतः उसमें कोई भी क्रिया नहीं हो सकती । भरे मकान में घूमने-फिरने का स्थान कहां । बौद्ध दर्शन के अनुसार आत्मा क्षणिक है । अतः वह व्यवस्थित क्रिया कर नहीं सकती। पर जैन दर्शन के अनुसार क्रिया भी है, अक्रिया भी है ।
शुभ योग त्याज्य है ?
तत्वतः अक्रियत्व का स्थान बहुत ऊंचा है । लोग तो कहते हैं कि निष्क्रिय मत बनो । पर इसके विपरीत जैन दर्शन कहता है कि अक्रिय बनने के लिए पुरुषार्थ करो । हीरे से हीरा कटता है । वैसे ही अक्रिया की साधना से व्यक्ति अक्रिय बनता हैं। पांच संवर अक्रियता । छठे - सातवें गुणस्थान में साधुओं के सम्यक्त्व और व्रत संवर तो हैं ही, कभी-कभी अप्रमाद संवर भी होता है । अकषाय संवर नहीं होता । अयोग संवर अंशतः होता है । जितना भी शुभ योग का त्याग है, वह अयोग संवर का अंश है । साधुओं का खानपान, हलन चलन, उठना-बैठना आदि सभी प्रवृत्तियां शुभ योग हैं । इनका त्याग पाप का त्याग नहीं, अयोग संवर का अंश है । जैसे अभी एक साधु ( मुनिश्री सुखलालजी) ने ८१ दिन तक पानी का त्याग किया। क्या पानी पीना पाप था ? नहीं, बिलकुल नहीं। पर यह विशेष साधना है । अत: जैनदर्शन का कहना है कि निष्क्रिय बनो । शुभ योग का भी त्याग करो । परन्तु अशुभ योग से नहीं, बल्कि अक्रियत्व के द्वारा। इसी तरह श्रावक के भी संवरांश हो सकता है । वह भी यदि कुछ शुभ प्रवृत्तियों का त्याग करता है तो उसके भी आंशिक अयोग संवर क्यों नहीं होगा । उसके भी कुछ स्थिरता जो होती है । आचार्य भिक्षु ने उसको अयोग संवर की बानगी माना है ।
योग से अयोग की ओर
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