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१९. व्यवहार में अहिंसा और सत्य की उपादेयता
मेरा पुष्ट अभिमत है कि सत्य के बिना मनुष्य का व्यवहार चल ही नहीं सकता । दिन में वह ज्यादा सत्य ही बोलता है । उसकी तुलना में असत्य तो बहुत ही कम । फिर जितना असत्य बोलता है, उससे भी समस्याएं सुलझती हैं, ऐसी बात नहीं है । मात्र क्षणिक रूप में उसे ऐसा होने का आभास होता है कि उसका काम निकल गया । पर वस्तुतः अपनी झूठ के कारण ही उसे सारी परेशानियां उठानी पड़ती हैं । यदि मनुष्य उस थोड़े-से असत्य को भी छोड़ दे तो मैं समझता हूं कि उसके दुःखी होने का कोई कारण ही नहीं रह जाएगा । आजकल यह एक जो प्रवाह चल पड़ा है कि बिना असत्य के काम चल ही नहीं सकता, वह मिथ्या ही नहीं, घातक भी है। आप एक दिन प्रयोग के स्तर पर देखें कि दिनभर में कितनी बार असत्य बोलते हैं । मेरे ख्याल से वह संख्या बहुत ही कम होगी । अपनी माता को कौन माता नहीं कहेगा | अपना नाम कौन गलत बताएगा । पुस्तक को कौन नहीं पुस्तक कहेगा । खाने की चीज को कौन नहीं खाने की बताएगा । इस प्रकार अधिकांशतः वह सत्य ही . बोलता है । यदि मनुष्य अपने घर में झूठ बोलने लग जाए तो परिवार नाम की कोई चीज ही नहीं रह जाएगी । समाज का आधार भी तो आखिर सत्य है । यदि मानव समाज में सत्य नहीं रहे तो समाज कभी का छिन्न-भिन्न हो जाएगा । इसी प्रकार राष्ट्र की स्थिति का कारण भी सत्य ही है । वही राष्ट्र समुन्नत होगा, जहां के निवासी झूठ नहीं बोलते । यही स्थिति अहिंसा की है । परिवार, समाज, राष्ट्र और अनन्त विश्व सभी अहिंसा के आधार पर ही चलते हैं । अतः सत्य और अहिंसा केवल आध्यात्मिक तत्त्व ही नहीं हैं, दैनिक व्यवहार में भी उनकी नितान्त आवश्यकता है ।
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मानवता मुसकाए
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