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१७. मैत्री का विचार आगे बढे
संस्कृत भाषा का एक श्लोक है--
शंकास्थानसहस्राणि, भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥
यह निर्णय करना कठिन हो गया है कि आज का जगत् मूढ है या पंडित ?
मूढ कैसे माना जाए, विज्ञान शिखर पर जो पहुंच रहा है । पंडित कैसे माना जाये, पग-पग पर हजारों आशंकाएं और सैकड़ों प्रकार के भय जो उसे सता रहे हैं । पर दोनों में से एक तो होना ही चाहिए । मूढ का अर्थ अज्ञानी नहीं है। जो मोह-ग्रस्त हो, उसे मूह कहा जाता है। आज का मनुष्य अज्ञ नहीं है, किन्तु मूढ है । एक व्यक्ति के प्रति दूसरे व्यक्ति के मन में, एक वर्ग के प्रति दूसरे वर्ग के मन में और एक राष्ट्र के प्रति दूसरे राष्ट्र के मन में शंका और भय के भाव घिरे हुए हैं। विश्वास जैसे जनमा ही न हो, ऐसा लगता है। इस अविश्वास की भावना ने मैत्री-भाव को बहुत ही जटिल बना दिया है। प्रलय की कल्पना इसी भूमिका में पल रही है।
विश्वास का आधार है--मैत्री। मित्र से कोई भय नहीं होता। इसलिए अभय की भूमिका भी मैत्री है। जहां अभय है, विश्वास है, वहां शांति को कोई खतरा नहीं होता। शांति को खतरा मूढता से होता है । मूढता तब आती है, जब शक्ति, अधिकार और पदार्थ के लिए मानव-मन झूम उठता है। शक्ति, अधिकार और पदार्थ-संग्रह के प्रति आकर्षण बढता है, तब मूढ़ता छा जाती है इस बात को पलट कर यों भी कहा जा सकता है कि मूढ आदमी सब कुछ कर सकता है।
___मैत्री में मोह का पागलपन नहीं होता। इसलिए वह शक्ति, अधिकार और पदार्थ-संग्रह से परे होती है। मैत्री-दिवस का महत्त्व इसीलिए है कि मनुष्य निर्मोह बने, जनता और उसके नेता अमूढ बनें ।
* मैत्रा-दिवस पर प्रदत्त संदेश (कानपुर)
मैत्री का विचार आगे बढे
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