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होता जा रहा है। जहां कहीं देखें, लोगों की दृष्टि धनकुबेरों की ओर है आत्मगुणों को महत्त्व देने वाले आज पैसों के चरण छूते हैं । भारतीय संस्कृति में अपरिग्रह का एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । यहां के मानव का मस्तिष्क बड़े-से-बड़े सत्ताधीश और सम्राट् के चरणों में नहीं झुका, एक अकिंचन न्यागी के सामने झुका है। अनेक सम्राट् और धनाढ्य यहां आये, चले गये । आज कौन उन्हें याद करता है । पर उन सन्तों, तपस्वियों, त्यागियों और संन्यासियों को आज भी लोग आदर के साथ याद करते हैं, उनकी स्मृति करते हैं ।
भारतीय ग्रन्थों से पता चलता है— हजारों नरेशों ने अपने राज्य, वैभव, सुख-सुविधा और भोगोपभोग को ठुकराकर अकांचन्य को स्वीकार किया । महाकवि कालिदास ने लिखा है - रघुवंशी नरेशों का जीवन - क्रम था - वे शैशव में विद्याभ्यास करते थे, यौवन में गृहस्थ रहते थे, उम्र पकने पर औदायित्व ग्रहण करते और अन्त में घर, परिवार, राज्य आदि सबका परित्याग कर योगानुसरण और अध्यात्म - साधना में अपने को लगा देते थे । आज लोग त्याग और संयम की बातों को भुलाते जा रहे हैं । उसी का यह दुष्परिणाम है कि जन-जीवन दुःखी और अशान्त है । यदि मनुष्य को सुखशान्ति से जीना है, तो उसे त्याग और संयम का जीवन अपनाना होगा ।
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मानवता मुसकाए
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