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१६. अहिंसा : सबसे बड़ा विज्ञान
हम साधुओं को देखकर कुछ बौद्धिक लोग सोचा करते हैं कि ये किस पिछड़े युग के आदमी हैं ! आज वैज्ञानिक युग है । ये लोग अवैज्ञानिक पद्धति से चलनेवाले आज के युग में क्या करेंगे ! मैं सोचता हूं, वह विज्ञान आकर भी क्या करेगा, जो शाश्वत तत्त्वों को अवैज्ञानिक ठहराए । मेरी दृष्टि में सबसे बड़ा विज्ञान अहिंसा का सिद्धान्त है। 'अहिंसा समयं चेव, एयावन्तं वियाणिया'-अहिंसा से बढ़कर कोई विज्ञान न आया है और न आयेगा ही। जिसमें अहिंसा नहीं, वह विज्ञान नहीं। फिर तो उस विज्ञान का 'वि' हटकर उसके स्थान पर 'कु' या 'अ' लगेगा। अथवा उसकी यह प्रतिकूलार्थक व्युत्पत्ति करनी होगी-'विगतं ज्ञानं यस्मात् तद् विज्ञानम् ।' अर्थात् जो ज्ञान वर्जित है, वह विज्ञान है। विशेष ज्ञान-विज्ञान वह है, जो जीवन को सही दिशा दे, जीवन को पवित्र और ऊंचा उठाए, अहिंसक जीवन जीना सिखाये। जिस विज्ञान में ये बातें नहीं, इससे विपरीत हों, वह विगत-ज्ञान होगा। जीवन की परिभाषा
___क्या मानव-जीवन हाड़-मांस का पुतला मात्र ही है ? क्या खानेपीने, नहाने-धोने, बाल-बच्चों की पैदाइश, वृद्धि या पालन-पोषण को ही हम जीवन मानें ? ये काम तो एक पशु भी करता है । फिर पशु और मनुष्य में भेद क्या रहा ? ये सब, जिन्हें लोग वैज्ञानिक जीवन मानते हैं, सही अर्थ में वैज्ञानिक जीवन नहीं है। इस बाह्य भोग-सामग्री को प्राप्त करने और उसी में आप्लावित रहने को हमारे भारतीय दर्शन में नास्तिक जीवन, अधार्मिक जीवन और पाशविक जीवन कहकर पुकारा गया है ।
मानव चेतन है। वह अपने आन्तरिक सौन्दर्य को देखे । यही एक तत्त्व सोचे कि मैंने कहीं ऐसा कार्य तो नहीं किया, जिससे किसी दूसरे प्राणी को पीड़ा हुई हो? इसी का नाम तो अहिंसा है। वह कैसा जीवन, जो केवल अपने बारे में ही सोचे । केवल वैज्ञानिक चकाचौंध में चुंधिया जाना, भौतिकवादी बन जाना, भौतिक पदार्थों में ही रमे रहना, क्या कोई जीवन है। आज असली आन्तरिक जीवन का चिन्तन कम होता जा रहा है ।
मानवता मुसकाए
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