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________________ १५. सत्य की साधना : सबसे बड़ी भक्ति मानव ! तुम चाहते हो कि संसार में सत्युग आए, तब फिर सत्य की उपासना क्यों नहीं करते ? डर क्यों रहे हो ? वास्तव में ही यदि तुम्हारी चाह है तो तुम्हें सत्य की उपासना करनी ही पड़ेगी। इसके सिवाय इस चाह के पूरा होने का दूसरा कोई विकल्प नहीं है, उपाय नहीं है। तुम भक्त हो । अत: तुम भक्ति करना चाहते हो। पर यह क्यों नहीं सोचते कि सत्य से बढकर कोई दूसरा भगवान नहीं हो सकता। जब सत्य के रूप में तुम्हारे सामने साक्षात् भगवान खड़े हैं, तो उनकी उपासना क्यों नहीं करते ? उनकी भक्ति और पूजा क्यों नहीं करते ? । तुम अन्तर्दृष्टि से निहारो और इस यथार्थ का साक्षात्कार करो कि बहुत-सारे ग्रन्थों को पढ़ लेने वाला सही अर्थ में मेधावी नहीं है । वास्तव में मेधावी और पंडित वह है, जो सत्य की उपासना करता है । और ऐसा मेधावी ही आसानी से संसार के पार पहुंच सकता है। तुम कहने को तो यह उद्घोषणा करते हो कि मुझे झूठ से चिढ है । पर जरा गहराई से सोचो, क्या यह वास्तविकता है ? कहीं तुम बिना तात्पर्य समझे तो ऐसी उद्घोषणा नहीं कर रहे हो? तुम इस बात को समझो कि सत्य की भक्ति, पूजा और उपासना का कार्य सहज नहीं है, बहुत कठिन है। उसमें अखूट आत्मशक्ति और एकान्त आत्मार्थीवृत्ति अपेक्षित होती है। थोड़ी-सी कमजोरी और स्वार्थ-भावना आई कि उपासना, पूजा और भक्ति सब समाप्त हो जाती हैं । भक्त कहलाने वाले भी बहुधा इसी कारण फिसल जाते हैं । फलतः मंजिलप्राप्ति की उनकी ललक धरी की धरी रह जाती है । सफल नहीं हो पाती । तुम्हें अपनी मंजिल को पाना है, इसलिए फिसलन से बचना होगा, कदमकदम सावधानी रखनी होगी। तुम्हारी अवधारणा है कि सत्य का अनुसरण करने से कई बार हित के स्थान पर अहित हो जाता है। एक रूसी डॉक्टर ने कहा था--'मैंने अपने जीवन में गलती एक ही की है और वह यह कि मैंने अपनी गलती को मंजूर कर लिया।' पर मैं तुम्हें आश्वस्त करना चाहता हूं कि वास्तविकता ऐसी नहीं है । इस पर भी तुम्हें विश्वास न हो तो तुम स्वयं परीक्षा कर देख लो। सत्य पर अडिग रहना, उसका अनुसरण करना एकांत हित की बात ३२ मानवता मुसकाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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