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आत्मिक समता की भावना नहीं जाग जाती । व्रत के दर्शन में रोग का मूल भोग-वृत्ति है, शोषण और संग्रह नहीं। जब तक भोग-वृत्ति न्यून नहीं होती है, तब तक न शोषण मिट सकता है और न संग्रह ही। शोषण और संग्रह दोनों भोग-लालसा की पूर्ति के लिए हैं । वह मिटती है, तब उनका कोई कारण ही शेष नहीं रहता । व्रती बनने के बाद इच्छाएं सीमित नहीं होतीं, बल्कि जब इच्छाएं सीमित हो जाती हैं, तभी व्यक्ति व्रती बनता है। व्रत की स्थिति बलवान होती है, वहां अतिभाव नहीं होता। अतिभाव के बिना अभाव भी नहीं होता। इस प्रकार आत्मनिष्ठ समभाव से पदार्थाश्रित समभाव स्वयं फलित हो जाता है। अणुव्रत-आंदोलन का ध्येय है---आत्मिक समभाव की स्थापना हो।
पदार्थ पर आधारित समभाव सत्ता-निर्भर रहता है । सत्ता से नियंत्रित व्यक्ति जड़ बन जाता है। उसे संग्रह-त्याग में वह आनन्द नहीं आता, जो आत्म-नियमन करनेवाले व्रती को आ सकता है। आवश्यकता और पवित्रता दो अलग-अलग तत्त्व हैं। जीवन की आवश्यकताएं जो हैं, उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। किन्तु उनकी पूर्ति राज्य-सत्ता या उसकी समानान्तर शक्ति पर निर्भर है । अणुव्रत-आंदोलन व्रत-प्रधान है, इसलिए उसकी कार्यदिशा उससे भिन्न है । उसका सम्बन्ध जीवन की पवित्रता से है। आवश्यकता के अतिरेक अथवा परिस्थिति की जटिलता से जो बुराइयां बढ़ती हैं, उन्हें मिटाना, यह उसका उद्देश्य है । परिस्थितियां जब-कभी भी प्रतिकूल हो सकती हैं, किंतु उनके कारण व्यक्ति बुरा न बने—यह भावना है। यह तभी संभव है, जब मानव-समाज सादा, स्वावलंबी, श्रमप्रधान एवं सात्विक जीवन जीने का अभ्यासी बने ।
आत्मिक समभाव की स्थापना हो
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