________________
१४. आत्मिक समभाव की स्थापना हो
विद्या जीवन-निर्माण की दिशा बने
विद्या जीवन की दिशा है। उसे पाकर मनुष्य अपने इष्ट स्थान पर पहुंच सकता है । चरित्र जीवन की गति है । सही दिशा मिल जाने पर भी गति -हीन व्यक्ति इष्ट स्थान पर नहीं पहुंच पाता । सही दिशा और गति-दोनों मिलें, तब पूरा काम बनता है ।
चरित्रशून्य या आचारशून्य विद्या मनुष्य के लिए वरदान नहीं बन पाती । आज विद्या के लिए जितना प्रयत्न हो रहा है, उतना चरित्र या आचार के लिए नहीं ।
शान्ति की मांग क्यों ?
मनुष्य इच्छापूर्ति के लिए उच्छृंखल गति से चला । इच्छा पूरी नहीं हुई । इच्छापूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर बना। वह निर्भरता भी टूट रही है | इसलिए वह अशांत बन रहा है । अब वह चाहता है— कहीं शांति मिले । आप ध्यान से देखें, शांति वे चाहते हैं, जो सुख-सुविधाओं को पाकर अतृप्त हैं । जो गरीब हैं, सुख-सुविधाओं से वंचित हैं, वे शांति की चर्चा नहीं कर रहे हैं । उनकी चर्चा अभी सुख-सुविधा के लिए चलती है । निम्न वर्ग असुविधा से पीड़ित है और उच्च वर्ग अशान्ति से ।
शोषण और संग्रह का मूल्य
आज का संघर्ष अभाव और अति भाव का संघर्ष है । दोनों से बचकर चलने का मार्ग समभाव है । राजनीति की दृष्टि उत्पादन, वितरण और विनिमय से वैयक्तिक प्रभुत्व को समाप्त कर समभाव को फलित करना चाहती है । इसलिए उसके अनुसार समभाव सामूहिक सम्पत्ति पर आधारित है । संयम की दृष्टि इससे सर्वथा भिन्न है । वह समभाव को आत्म-निष्ठ मानती है । व्यक्ति-व्यक्ति में समभाव आये, उसमें प्राणिमात्र को आत्म-तुल्य समझने की भावना प्रबल बने, यह उसका अभिप्रेत है । एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शोषण और उत्पीड़न इसलिए करता है कि उसकी भोग-वृत्ति चलती चले । और ऐसा वह तब तक करता है, जब तक उसके अन्तर् में
मानवता मुसकाए
३०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org