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उपभोग-परिभोग व्रत
इस स्वाद-वृत्ति अतृप्ति पर नियन्त्रण रखने के लिए जैन परम्परा में श्रावक के सातवें व्रत-उपभोग-परिभोग व्रत का बड़ा महत्व है। उपभोग यानी एक बार काम आने वाला पदार्थ, जैसे- भोजन, पानी आदि । परिभोग यानी वार-बार काम आनेवाला पदार्थ, जैसे- वस्त्र, आभूषण आदि । श्रावक उपभोग-परिभोग की सीमा करे, वह इस व्रत का अभिप्रेत है। वैसे संसार में अनेक द्रव्य हैं, पर उन्हें संक्षेप की दृष्टि से छब्बीस में बांध दिया गया है। बहत-से जैन लोग तो अपने खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने तथा और अन्य काम आने वाली चीजों की दैनिक सीमा भी करते हैं। यह अच्छा क्रम है और इसका अभ्यास प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए। अणुव्रतों में शील और चर्या के अन्तर्गत खाद्य-संयम से सम्बन्धित एक नियम रखा गया है--दिन भर में इकतीस द्रव्यों से अधिक द्रव्य नहीं खाऊंगा। इसके पीछे भी यही दृष्टिकोण है कि व्यक्ति की स्वाद-वृत्ति पर अंकुश रहता रहे । इकतीस द्रव्यों की सीमा तो सर्वाधिक क दृष्टिकोण से रखी गई है। इसमें भी जितनी कमी रखी जाये, उतना ही श्रेयस्कर है।
स्वाद-वृत्ति
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