________________
१३. स्वाद-वृत्ति
इच्छा हु आगाससमा अणंतिया
मनुष्य को भूख इतनी नहीं सताती, जितनी लोलुपता सताती है, असंयम सताता है । शरीर की भूख को मिटाना तो बड़ी सरल बात है । थोड़ा खाया कि मिट गई। पर इस अतृप्ति-आकांक्षा को कैसे मिटाया जाये। एक कवि ने कहा है--
तन की तृष्णा तनिक है, तीन पाव क (या) सेर ।
मन की तृष्णा अमित है, गिले मेर-का-मेर ॥ शरीर के लिये ज्यादा-से-ज्यादा आवश्यक है तो तीन पाव या सेर होगा । पर यह मन की तृष्णा इतनी बड़ी होती है कि मनुष्य इससे कभी तृप्त होता ही नही । इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है-'इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ।' अर्थात् मनुष्य की इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं । ज्यों-ज्यों उनकी प्राप्ति होती जाती है, त्यों-त्यों वे उद्दीप्त होती जाती हैं । अग्नि में ईंधन डालने से क्या वह कभी शान्त हुई है। इसी प्रकार एक आकांक्षा के पूरी होते ही दूसरी आकांक्षा और शुरू हो जाती है । और जिसको ज्यादा तृप्ति होने लगती है, उसकी अतृप्ति भी उसी वेग से बढ़ने लगती हैं । मारवाड़ की एक कहावत है-'बड़ी रात का तड़का ही बड़ा ।' यानी रातें जितनी बड़ी होती हैं, उनका उषाकाल भी उतना ही बड़ा हो जायेगा । बड़ी रातों में प्रकाश हो जाने के कितनी देर बाद सूर्य निकलता है । पर छोटी रातों में पौ फटते के थोड़ी देर पश्चात् ही सूर्य निकल आता है। उसी प्रकार थोड़ी आकांक्षाएं हैं, वे बड़ी जल्दी पूरी हो जाती हैं और उनसे कुछ सन्तोष भी मिल जाता है। पर जिनकी आकांक्षाएं बढ जाती हैं, वे बढती ही जाती हैं। और यहां तक कि वे कभी भी पूरी होनी मुश्किल हैं। यद्यपि अप्राप्ति पर आकांक्षाएं न बढ़े यह ऐकान्तिक तथ्य नहीं है, पर प्रायः प्राप्ति ही उन्हें और बढ़ाती है। इसलिए भगवान महावीर ने कहा है-'जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई।' भरना तो पेट ही है
हां, तो शरीर की आवश्यकता तो बहुत थोड़ी होती है, पर स्वाद-वृत्ति स्वाद-वृत्ति
२७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org