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जीवन की उच्चता का मापदण्ड
प्रश्न है, व्रती समाज की कल्पना साकार कैसे हो सकती है ? मैं समझता हूं, इस कार्य को त्यागी-तपस्वी ऋषि-मुनि ही कर सकते हैं । क्यों ? इसलिए कि जिस मार्ग में जो स्वयं स्पष्ट होता है, वही उसकी प्रेरणा देने का अधिकारी है । दीये से दीया जलता है । दृष्टि से दृष्टि मिलती है। यहां आत्मदर्शी ऋषियों की लम्बी परम्परा है। आरम्भ, परिग्रह और भोग से दूर रहकर उन्होंने जो सत्य पाया, समाधान पाया, वही उन्होंने शब्दों में गंथा। उसका सार है-तप और संयम । तपस्वी और संयमी जीवन ही उत्तम जीवन है।
__ भोग-प्रधान क्षेत्रों में पदार्थों से समृद्ध जीवन ही उच्च जीवन है । त्याग-प्रधान परम्परा इस मापदण्ड को स्वीकार नहीं करती। सादगी और सरलता गरीबी की उच्चता नहीं है, किंतु त्याग की महिमा है। धन से मन को कभी समाधान नहीं मिला । मानसिक समाधि के बिना शांति नहीं। हमारा शांति-सूत्र हैद्वन्द्व का उपरम । भोग-प्रधान जगत् में द्वन्द्व ही परम पुरुषार्थ है और आत्म-प्रधान जगत् में आत्मिक शांति ।
मानवता मुसकाए
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