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ऐसी स्थिति में कुटुम्ब पालन हेतु चोरी करना भी धर्म है। सबको धर्म से प्यार है। कोई भी पापी बनना नहीं चाहता। व्यक्ति जो चाहे सो करे, केवल धर्म ही पुट होनी चाहिए। यह स्थिति देखकर बार-बार मन में प्रश्न उठता है कि अधर्म नाम का तत्व फिर है क्या ? स्वार्थी लोगों ने धर्म नाम को विकृत कर दिया है। धर्म और अधर्म का संक्षिप्त सूत्र यही हैजिस प्रवृत्ति से हम मोक्ष के निकट जाते हैं, वह धर्म है और जिससे बन्धन के निकट जाते हैं, वह अधर्म है। धर्म और कर्तव्य
प्रश्न होता है, जिससे दुनिया को सुख-शांति मिले, क्या वह धर्म नहीं ? इसके समाधान में हमें देखना होगा कि मोक्ष से निकटता हो रही है या नहीं ? यदि हो रही है तो निश्चित ही धर्म है। इसके विपरीत यदि मोक्ष की निकटता नहीं हो रही है तो उसे धर्म किसी भी हालत में नहीं कहा जा सकता । किंतु धर्म न होने के बावजूद उसे सीधा अधर्म भी कहना उचित नहीं है । क्यों ? इसलिए कि सीधा-सपाट अधर्म कहना लोगों को अप्रिय लगता है। यहां प्रश्न होता है, धर्म भी नहीं, अधर्म भी नहीं, फिर उसे क्या कहा जाए? उसे 'लोक-धर्म', 'समाज-धर्म',..... कहा जा सकता है । आप देखें, बहू सास को प्रणाम करती है। स्पष्ट है, इस प्रवृत्ति का मोक्ष-साधना से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिए इसे धर्म नहीं कहा जा सकता। पर अधर्म भी कैसे कहा जाए । अत: इसको 'कुल-धर्म' कहा गया । इस प्रकार की एक-दो नहीं, अपितु सैकड़ों-सैकड़ों प्रवृत्तियां गिनाई जा सकती हैं, जो धर्म न होकर भी लोक-व्यवहार के साथ जुड़ी हुई हैं, जिनके बिना लोक-व्यवहार नहीं चल सकता । इन्हें 'लोक-धर्म' कहा गया । 'लोक-धर्म' और कुछ नहीं, कर्तव्य का ही दूसरा नाम हैं। यहां एक बात और ज्ञातव्य है । धर्म और कर्तव्य में अन्तर है। धर्म कर्तव्य है, लेकिन सभी कर्तव्य धर्म नहीं हैं। कर्तव्य देश, काल, परिस्थिति के अनुसार बदल सकते हैं, लेकिन धर्म सर्वदा सर्वत्र एक ही रहता है। धर्म का कार्य है मांजना । वह जीवन को मांजता है । जो अपने जीवन को मांजना चाहें, वे धर्म को पहचानें और उसका प्रारम्भ अपने जीवन से करें। निश्चित ही वे अपने जीवन के निखरे रूप से साक्षात्कार कर सकेंगे।
मानवता मुसकाए
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