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________________ भरोसा नहीं। वह अपने हित के लिए देव की सहायता चाहता है। पर याद रखें, वीतराग देव कभी किसी की सहायता करने नहीं आते । मनुष्य का अपना हित स्वयं के करने से ही होता है । देव केवल निमित्त मात्र वनते है । वे हमारे आदर्श हैं । उनका स्मरण आदर्शों तक पहुंचने के लिए किया जाना चाहिए, कुछ भौतिक प्राप्ति के लिए नहीं। वीतराग हमारे देव हैं । हम गुणात्मकता पर ध्यान दें, नाम से हमारा मोह नहीं होना चाहिए। मैंने एक गीत में कहा है-- वीतराग को देव बनाएं, हरि हो हरिहर संज्ञा चाहे । आखिर अपना हित अपने से, होगा समुचित साधन द्वारा। प्रभो ! यह तेरा पंथ सुप्यारा ॥ बना रहे आदर्श हमारा॥ प्रश्न उभरता है-देव को वीतद्वेष न कहकर वीतराग क्यों कहा गया है ? इसका एक बहुत महत्त्वपूर्ण कारण है। आप ध्यान दें, द्वेष को जीतना सरल है, पर राग को जीतना उतना सरल नहीं है । गाली सहने वाले बहुत मिलेंगे, परन्तु प्रशंसा को सह सके, ऐसा कोई बिरला ही मिलेगा। इसलिए देव को वीतराग कहा गया है। कुछ लोग वीतरागी की कल्पना मन्दिर में करते हैं, कुछ मूर्ति में करते हैं । यों तो व्यक्ति देव की कल्पना जहां चाहे वहीं कर सकता है, परन्तु उसका सर्वाधिक उपयुक्त स्थान तो अपना मन ही है। मन में कल्पना कर आत्मा से उपासना करें। मन को पवित्र बनाएं । __ वीतराग को ही देवबुद्धि से ग्रहण करें । कुदेवों को देवबुद्धि से सिर न झुकाएं । देव में देवबुद्धि रखना सम्यक् दर्शन है । इसी प्रकार सद्गुरु में गुरुबुद्धि और धर्म में धर्मबुद्धि रखना सम्यक् दर्शन है। कुदेव में देवबुद्धि और देव में कुदेवबुद्धि, कुगुरु में सद्गुरुबुद्धि और सद्गुरु में कुगुरुबुद्धि तथा अधर्म में धर्मबुद्धि और धर्म में अधर्मबुद्धि रखना मिथ्यात्व है। धर्म : अधर्म मैं अनुभव करता हूं, आज भी आम लोगों में धर्म के नाम से आकर्षण है। स्वार्थी लोग धर्म के नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं । जिस कार्य की सिद्धि में कठिनता महसूस होती है, उसमें धर्म की पुट लगी कि वह सिद्ध हो जाता है । भिखारी राम नाम पर पैसा मांगता है । तम्बाकू पीनेवाला पुण्य के नाम पर तम्बाक और अग्नि मांगता है । धर्म के नाम पर धन इकट्ठा होता है। धर्म बहुत सस्ता हो गया है। कुंआ, प्याऊ, सदावर्त, हॉस्पिटल आदि सभी धर्म के नाम पर चलते हैं। और तो क्या, चोरी भी धर्म के नाम पर होती है । घर के सदस्य बहुत हैं । आय नहीं है अथवा कम है। सम्यक् दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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