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१०. सम्यक् दर्शन
सम्यक्त्व : मिथ्यात्व
___ सम्यक् दर्शन और विश्वास एक अर्थ के द्योतक हैं। दर्शन का अर्थ है--देखना । दर्शन के पीछे जो 'सम्यक्' विशेषण है, वह अपना विशिष्ट स्थान रखता है । सम्यक् दर्शन का अर्थ है-यथार्थ दर्शन । जो तत्त्व जिस रूप में हो, उसे वैसा ही देखना ।
. वाह्य वस्तु आंखों से देखी जाती है, लेकिन जब आंखों में रोग हो जाता है, तो वस्तु-दर्शन सम्यक् नहीं होता। पीत रोग से सफेद वस्तु पीली और तिमिर रोग से एक चांद के दो चांद दिखते हैं। उसी प्रकार जब अन्तर्दृष्टि सम्यक् नहीं होती, तब बुरी वस्तु भी अच्छी लगने लगती है। अन्तर्दष्टि सम्यक् न होने से देव, गुरु और धर्म में विपरीत बुद्धि हो जाती है । इसे मिथ्या दर्शन या मिथ्यात्व कहा जाता है । आचार्य हेमचन्द्र ने कहा
अदेवे देवबुद्धिः स्यात्, गुरुधीरगुरौ च सा ।
अधर्मे धर्मबुद्धिः स्यात्, मिथ्यात्व हि तदुच्यते ।। सबसे बड़ा पाप
'पच्चीस बोल' के चवदहवें बोल के अन्तर्गत पाप तत्त्व के अठारह भेद बताए गए हैं। उनमें सबसे बड़ा पाप मिथ्यात्व है । आज शिक्षित और अशिक्षित सभी इस पाप के शिकार हैं। इसका सम्बन्ध विद्या से नहीं है, अपितु आत्मा की शुद्धि से है । तत्त्व की भाषा में दर्शन मोहनीय एवं चारित्र मोहनीय के क्षय, क्षयोपशम एवं उपशम से है । यदि ज्ञान से इसका सम्बन्ध होता तो मनःपर्यवज्ञानी आत्मशुद्धि के अभाव में ज्ञान को खोकर नरक में नहीं जाते। देव का स्वरूप
देव उस दिव्य आत्मा को कहा जाता है, जो वीतराग हो, केवलज्ञान और केवलदर्शन से सम्पन्न हो। वीतराग आत्मा किसी पर निग्रह और अनुग्रह नहीं करती । मनुष्य की कमजोरी है कि उसे अपने पुरुषार्थ पर
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मानवता मुसकाए
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