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९. श्रद्धा को दृढ बनाएं
मनुष्य अशांत है, यह एक प्रकट सचाई है। परन्तु वह अभी तक भी इस सचाई से परिचित नहीं हो पाया है कि उसकी अशांति का मूल स्वयं वही है । उसकी वृत्तियां और प्रवृत्तियां ही उसके जीवन को जटिल बनाती हैं । यदि इस सचाई को जान भी पाया है तो भी हृदयंगम नहीं कर पाया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस क्षेत्र में चेतना उबुद्ध नहीं हुई है। विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए चेतना जागी और लाखों प्राण 'स्वतंत्रता हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है' के नारे पर मर मिटे । मैं मानता हूं, अगर बुराई के विरुद्ध भी वैसी ही चेतना जाग जाती तो लोग कठिनाइयों से मुंह नहीं मोड़ते । और तो क्या, नीति-निष्ठ व्यक्तियों का द्वार भी अनीति के लिए खुला है । इससे अधिक और क्या विडम्बना हो सकती है ! यह द्वार इसलिए खुला है कि वे इस भाषा में सोचते हैं, बिना मतलब कठिनाई कौन झेले । कार्य तो बुरा है, पर कर रहे हैं। फिर एक कोई नहीं करेगा, उससे क्या बनना है । आखिर सब भले बनें, तब नीति टिकेगी।""मैं मानता हूं, इस प्रकार श्रद्धा गिरती है, व्यक्ति गिर जाता है। सुख-सुविधा और विलास का ऐसा नशा छा जाता है कि फिर उठने की बात सहज नहीं रहती । सरसरी दृष्टि से देखें-केवल भारत में ही नहीं, लगभग समूची दुनिया के पट पर सर्वत्र यही चित्र चल रहा है। आखिर यह कब तक चलेगा ? अशांति के अन्तर्-दाह से झुलसा मनुष्य शांति के लिये दौड़ रहा है और दौड़ता ही रहेगा । वैयक्तिक स्वतंत्रता के बिना यह मिलने की नहीं और यह तत्त्व लोगों की समझ में नहीं आ रहा है। यह तो ठीक वही दशा है-- कस्तूरी की खोज में मृग समूचा जंगल खोज लेता है और वह मिलती नहीं । सचमुच शांति चाहिए तो सबसे पहली अपेक्षा है कि उसके अनुकूल श्रद्धा बने और चेतना जागे । प्रत्येक व्यक्ति अपने को स्वतंत्र बना ले तो अशांति की सत्ता उखड़ जाए, सारी समस्याएं स्वयं सुलझ जाएं ।
श्रद्धा को दृढ बनाएं
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