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त्याग का भी कम महत्त्व नहीं है । धार्मिक क्षेत्र स्वार्थ से सर्वथा अछूता रहे, इसी में सबका हित है और यही उसकी गरिमा के अनुकूल है। कुछ लोग इस भाषा में सोचते हैं कि धर्मसंघों में गणतंत्र होना चाहिए। पर वे भूल जाते हैं कि यहां गणतंत्र और एकतंत्र का प्रश्न ही नहीं उठता। यहां तो स्वतंत्र है, स्व का तंत्र है । स्वतंत्र में दूसरे को हस्तक्षेप करने का अवसर ही नहीं आता । यदि वह स्वतंत्रता से दूर हो जाए तो दूसरे उसे सजग कर देते हैं । यदि वह स्वतंत्र की सीमा में रहे तो अन्य तंत्रों की कोई आवश्यकता नहीं है | जहां स्व का तंत्र मजबूत नहीं होता, वहां दूसरे हस्तक्षेप कर बैठते
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लेबनान में अमरीकन फौजें उतरीं । उसकी पृष्ठभूमि में अपने तंत्र की कमी और स्वार्थ ही तो है । यदि सब लोगों की दृष्टि अपने-अपने स्वार्थ पर ही टिकी रही तो बहुत अच्छाई की आशा नहीं की जा सकती । इसलिए आज सब लोग वैचारिक एकता की भावना को दृढ करने के लिए स्वार्थी के त्याग की बात सीखें |
विचार - विभेद को दो प्रमुख कारणों की संक्षिप्त चर्चा मैंने की । कारण को मिटने से कार्य / परिणाम स्वयं मिट जाता है । विचार- विभेद मिटा कि वैचारिक ऐक्य सहज सध जाता है । वैचारिक ऐक्य सधा कि संगठन की मजबूती एवं स्थायित्व दोनों अपने-आप आ जाते हैं । ध्यान रहे, मजबूती एवं स्थायित्व किसी भी संगठन की सफलता के लिए अत्यंत आवश्यक तत्व हैं ।
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मानवता मुसकाए
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