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काटकर उसने लिख दिया- 'शीलं सुकरम् ।' भक्त लोगों ने कहा'महाराज ! ऐसा मत कीजिए । यह ऋषियों की अनुभूत वाणी है ।' लेकिन ऋषि को अपने अनुभव पर गर्व था । उसने कहा - 'नहीं, मैं कहता हूं, वह सही है ।'
संयोगवश दूसरे ही दिन कसौटी हो गई । ऋषि धूनी तप रहा था । रात का समय था । करीब दस बजे थे । एक रूपवती नवयुवती ऋषि के पास आई । वह सास से झगड़ कर पीहर जा रही थी । बीच में ही अन्धड़ आया और वह पथभ्रष्ट होकर ऋषि की कुटिया पर जा पहुंची। उसने ऋषि से रात भर रहने को स्थान मांगा। ऋषि का मन निर्विकार था । उसने पूछा - 'बहन ! कौन हो तुम ?' उसने कहा- 'मैं अबला हूं । घर जा रही थी । मार्ग में रात हो गई । आप मुझे स्थान देकर मेरी रक्षा कीजिए ।' ऋषि ने पार्श्वस्थ मन्दिर की ओर संकेत करते हुए कहा- 'उस मंदिर में चली जाओ और किवाड़ बन्द कर लो ।' युवती ने वैसा ही किया । आधा घण्टा व्यतीत हुआ होगा कि ऋषि का मन बदला । उसने सोचा, जिस सुख के लिए सारा संसार भटकता रहता है, उसका संयोग आज मुझे अनायास ही मिल गया था । लेकिन मैं कैसा हतभाग हूं, जो सहज उपलब्ध सुख को खो बैठा। खैर, हुआ सो हुआ, अब भी समय है । बस, वह उठा और मन्दिर पहुंच गया । किवाड़ खटखटाया। लेकिन युवती ने नहीं खोला। बार-बार प्रयत्न करने पर भी नहीं खोला, बल्कि और अच्छे ढंग से बन्द कर लिया । अब क्या हो। दूसरा मार्ग नहीं पाया तो ऋषि मन्दिर के गुम्बज पर चढ़ा और ढक्कन को हटाकर नीचे उतरने लगा । लेकिन कमर तक उतरा कि फंस गया । और फंसा तो ऐसा बुरी तरह फंसा कि न तो वापस ऊपर ही आ सका और न नीचे ही उतर सका । युवती सावधान थी । पौ फटते ही द्वार खोल कर भाग गई । प्रातः भक्त लोग कुटिया पर आए । वहां पर ऋषि को न पाकर खोजते हुए मंदिर पहुंचे। वहां उसे अधर लटकते देख साश्चर्य पूछा'ऋषीश्वर ! तपस्या के अनेक प्रकार हमने देखे हैं । पर यह प्रकार तो कभी नहीं देखा । आपने यह क्या नया प्रकार अपनाया है ? ' ऋषि ने कहा -'मुझे बाहर तो निकालो, फिर बताऊंगा ।' भक्त लोगों ने गुंबज को फोड़कर उसे निकाला । उसने कहा - ' पहले वह ग्रन्थ लाओ, और बात फिर करूंगा ।' ग्रन्थ लाया गया । ऋषि ने 'शीलं सुकरम्' को काटा और उसके स्थार पर पुनः ‘शीलं दुष्करम्' कर दिया, बल्कि उसके आगे 'शील महादुष्करम्' और जोड़ दिया । और इसके साथ ही उसने सारा घटना क्रम बिना किसी लुकाव - छिपाव के सच-सच बता दिया ।
आपने देखा कि अनुकूल संयोग मिलने पर व्यक्ति की कैसी दशा हो जाती है । वस्तुतः तपस्या का मर्म वही पा सकता है, जो प्रतिस्रोत में
धर्म संजीवनी है
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