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कारण सम्भवतः यह हो सकता है कि धर्म का आडम्बरप्रधान रूप ही उनके सामने आया है । वास्तविक जो रूप था, वह दृष्टि से ओझल ही रहा। धर्म की व्यापकता
__भगवान महावीर ने कहा-'धर्म का अधिकारी प्राणि-मात्र है। प्रत्येक व्यक्ति हर स्थान में धर्म कर सकता है। धर्म-स्थान और व्यक्तिविशेष से वह बंधा हुआ नहीं है।'
__ अपने नाम के साथ जैन लगाने वाला ही मोक्षगामी है, दूसरा नहींयह विचारधारा भगवान महावीर की नहीं है। उनकी उदार भावना सबके लिए समान है। उन्होंने कहा-'जिसमें सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान और आचरण है, वही मोक्ष का पथिक है । इन तीनों का जितना अंश जिसमें सम्यक् है, उतनी सीमा तक वह मोक्ष का आराधक है। यदि कोई ज्ञानी नहीं है, लेकिन तपस्या करता है, तो उसकी वह तपस्या अच्छी है। मिथ्यादष्टि की तपस्या भी अच्छी है । आगम की भाषा में---
'तत्थ णं जे से पढमे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं असुयवं-उवरए, अविण्णायधम्मे । एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसाराहए पण्णते।'
पर तपस्या के सन्दर्भ में हमारी अवधारणा स्पष्ट होनी चाहिए। केवल न खाना ही तपस्या नहीं है । खाने में संयम करना भी तपस्या है, बल्कि बड़ी तपस्या है। उपवास करने की अपेक्षा मनोज्ञ भोजन मिलने पर खाने में संयम रखना कठिन कार्य है। मनोज्ञ भोजन न मिलने पर न खाना दूसरी बात है । मनोगत भोजन मिलने पर उसे अनासक्ति से छोड़ना बहुत कठिन कार्य है।
एक साधक अकेला रहकर ब्रह्मचर्य की साधना करता है। उसकी अपेक्षा उस साधक की साधना ज्यादा कठिन है, जो संयोग के साथ रहकर मन को काबू में रखे । सचमुच ही अनुकूल संयोग की स्थिति में मन को वश में रखना बहुत कठिन कार्य है। आप इतिहास को उठाकर देखें, विजय सेठ, विजया सेठानी और स्थूलिभद्र जैसे इने-गिने उदाहरण ही ऐसे मिलते हैं, जो अनुकूल संयोग मिलने पर भी फिसले नहीं। लेकिन अनुकूल संयोग पा फिसलनेवाले लोगों के उदाहरण तो बहुत मिलेंगे । शीलं दुष्करम् : शीलं सुकरम्
__एकान्त में रहनेवाले एक ऋषि ने कहा-'तपस्या में सबसे सरल ब्रह्मचर्य है, क्योकि इसमें खाने-पीने की किसी वस्तु का त्याग नहीं करना पड़ता । एक दिन वह एक ग्रन्थ पढ़ रहा था। उसमें लिखा था---'शीलं दुष्करम्'----शील दुष्कर है । ऋषि ने कहा-~-'यह गलत है ।' बस, उसको
मानवता मुसकाए
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