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जो श्रद्धावान् होता है, वह ज्ञान को प्राप्त करता है । ऐसे अनेक धर्मवाक्य हैं, जो व्यापक और प्रेरक हैं । उनका प्रयोग प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए ।
धर्म का स्वरूप
जीवन की पवित्रता का साधन जो है, वही धर्म है । साधन तीन हैंसम्यक् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् आचार । जीवन-शुद्धि के लिए इन तीनों का अनुशीलन जरूरी ही नहीं, अनिवार्य भी है ।
आज-कल कई लोग धर्म को अफीम कहते हुए उस पर लांछन लगाते हैं । मेरी दृष्टि में धर्म को अफीम कहने के तीन कारण हो सकते हैंधर्म के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न होना ।
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• धर्म का स्वरूप विकृत होना ।
• समझने के उपरान्त भी उसका आचरण न होना ।
मैं मानता हूं, इन तीनों में से कोई-न-कोई कारण जरूर है, अन्यथा वे धर्म को अफीम नहीं मानते ।
सम्यक् ज्ञान और सम्यक् 'क्यों' का उत्तर बहुत
जब तक धर्म-तत्व अपने जीवन में नहीं आएगा, तब तक उसका असर दूसरों पर होगा भी कैसे । दूसरे शब्दों में कथनी और करनी की एकरूपता नहीं हो तो उसका प्रभाव पड़नेवाला भी नहीं है । लोग कानों से सुनी बात पर विश्वास करते हैं, पर उससे भी ज्यादा विश्वास उस पर करते हैं, जो आंखों से देखते हैं । इसलिए कथनी और करनी में समानता होनी चाहिए | कथनी और करनी की समानता के अभाव में श्रद्धा नहीं रहती । आज भी लोगों में सच्चे धर्म के प्रति श्रद्धा है । भले कुछ लोग उसे धर्म की संज्ञान भी दें, फिर भी सत्यस्वरूप के प्रति किसी की अश्रद्धा नहीं हो सकती । मेरा अनुभव है कि किसी भी व्यक्ति की विश्वास के प्रति अश्रद्धा नहीं ही सकती । क्यों स्पष्ट है | विश्वास के बिना काम चल नहीं सकता। पति का पत्नी के प्रति, पिता का पुत्र के प्रति, सास का बहू के प्रति, "यदि विश्वास न हो तो जगत् का व्यवहार चल ही नहीं सकता । विश्वास होगा तो ज्ञान भी रखना होगा । जब ज्ञान और विश्वास सम्यक् होंगे तो आचरण भी सम्यक् होगा । अन्यथा ज्ञान और विश्वास का पूर्ण लाभ नहीं मिल सकता | नास्तिक भी सम्यक् ज्ञान और श्रद्धा / विश्वास को मानते हैं । अपेक्षा से मैं नास्तिकों को भी धार्मिक मान लेता हूं । यद्यपि उनका परमात्मा, पूर्वजन्म, पुनर्जन्म, कर्म आदि में विश्वास नहीं है । भले वे भूत और भविष्य को तो नहीं मानते, पर वर्तमान को तो मानते ही हैं । वर्तमान में सत्य, अहिंसा आदि के प्रति जो श्रद्धा है, वह धर्म-तत्व के अनुकूल ही है । वे धर्म को अफीम कहते हैं, इसका
धर्म संजीवनी है
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