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५. धर्म संजीवनो है
सार्वभौम धर्म
धर्म ध्रुव है, शाश्वत है और एक है। बाइबल, कुरान, वेद, पिटक; आगम और गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्म-ग्रन्थों में धर्म की महिमा वर्णित है। समझने की बात यह है कि धर्म-तत्व सभी धार्मिक ग्रन्थों में मिलते हैं। पर उन तत्वों पर व्यक्तिगत या सम्प्रदायविशेष का अधिकार नहीं होता । वे व्यापक होते हैं।
सिखों के गुरु-ग्रन्थ साहिब में बहुत-सारे अच्छे धर्म-तत्व मिलते हैं। परन्तु क्या वे केवल सिखों के लिए ही हैं ? नहीं, सबके लिए हैं। वेदों के अच्छे तत्वों को सनातनी ही क्यों, प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में उतार सकता है । इसी प्रकार जैन-आगमों में वर्णित तत्व भी सबके लिए हैं। वे केवल जैनों के लिए ही हों, ऐसी बात नहीं है।
दशवकालिक सूत्र में भगवान महावीर ने कहा है-'न सा महं नोवि अहं पि तीसे।' किसी पुरुष का मन जब विचलित हो जाए, उस समय उसे ऐसा सोचना चाहिए—-मैं उसका नहीं हूं और वह मेरी नहीं है। इस चिंतन से वस्तु के प्रति जो आसक्ति/लालसा होती है, वह मिट जाती है। त्यागी कौन है, इस प्रश्न को उत्तरित करते हुए कहा गया है-'साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई' जो स्वाधीनतापूर्वक भोगों को छोड़ता है, वही त्यागी है । एक व्यक्ति भोगों को भोगने में सक्षम है। सारी सामग्री उपलब्ध है। वह मनोनुकूल है । उस स्थिति में भी यदि वह भोगों को नहीं भोगता है तो वह वास्तव में त्यागी है। इसके विपरीत भोगों को भोगने की भावना है, किंतु अभाव, अक्षमता या किसी विवशता से भोग नहीं पाता है तो वह त्यागी नहीं है।
भोग न भोग सकने के कारण अगर कोई पूज्य हो तो एक भिखारी भी पूज्य क्यों नहीं होगा। पैसे के लिए दर-दर भटकनेवाले के पास पैसा न हो तो क्या वह पैसे का त्यागी है ? नहीं, वह त्यागी नहीं है, क्योकि उसकी लालसा, संग्रहवृत्ति अभी मिट नहीं पाई है ।
आप सोचें, क्या ये तत्व मात्र जैनों के लिए ही हैं ? जैनों के लिए ही क्यों, सबके लिए हैं। गीता में कहा गया है-'श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् ।'
मानवता मुसकाए
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