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० वह सही मार्ग कैसे दिखा सकता है, जो स्वयं ही गुमराह है। सही ___ मार्ग तो वही दिखा सकता है, जो मार्ग का जानकार हो। (१६३) ० आत्मा की उपासना ही परमात्मा की उपासना है । (१६४) ० जिसने आत्मा की उपासना कर ली, उसने अप्रत्यक्ष रूप से परमात्मा
की उपासना कर ली। (१६४) । ० भगवान से साक्षात्कार की तमन्ना है तो आत्म-दर्शन करें। आत्म
दर्शन करते-करते परमात्म-दर्शन स्वयं हो जाएगा । (१६४) • वर्तमान को बिगाड़कर परलोक सुधारने वाला धर्म मेरी दृष्टि में
बासी धर्म है, उधार धर्म है। ऐसा तथाकथित धर्म हमारे किस काम का । हमें तो नगद धर्म चाहिए । जब भी उस धर्म की आराधना करें, हमारा सुधार हो, हमें शांति की अनुभूति हो, आनन्द की प्राप्ति हो। वह नकद धर्म है-जीवन में विचार और आचार की पवित्रता । तपस्या, त्याग, संयम और दुष्प्रवृत्तियों से विरति। ऐसे धर्म से परलोक तो सुधरेगा-ही-सुधरेगा। इसमें संदेह करने की कोई गुंजाइश ही नहीं है । (१६५) • हिंसा अन्तत: हिंसा ही है। भले वह अहिंसा की रक्षा के बहाने हो
अथवा किसी अन्य नाम पर । (१६९) • अहिंसा और कर्त्तव्य दो अलग-अलग तत्व हैं। कहीं-कहीं दोनों
मिल अवश्य जाते हैं, फिर भी दोनों एक नहीं हैं । (१६९) ० ह्रास को रोके बिना विकास कभी भी सम्भव नहीं है । (१७२) ० दूसरों के द्वारा थोपा हुआ नियंत्रण व्यक्ति के लिए भार हो सकता
है। इसलिए वह धर्म नहीं है । धर्म का किसी पर भार नहीं होता।
इसीलिए अपने द्वारा किया हुआ अपना नियन्त्रण ही धर्म है ।(१८१) • प्रकृति के संतुलन में मनुष्य के संतुलन का भी एक सीमा तक प्रभाव पड़ सकता है। आज मनुष्य ने अपना संयम खो दिया है तो
प्रकृति भी इस प्रभाव से मुक्त कैसे रह सकती है । (१८३) • कार्यकर्ताओं पर दोहरी जिम्मेवारी है। पहले वे स्वयं सुधरें और
फिर दूसरे लोगों को सुधारने की चेष्टा करें । (१८४) ० संयमी, श्रद्धालु और तपोनिष्ठ कार्यकर्ता ही युग को मोड़ दे सकते
हैं। (१८४) ० मैं परिस्थितिवाद का घोर विरोधी हैं। सारे दांत गिर जाने पर
सुपारी न खाने और मृत्यु-शय्या पर सोकर ब्रह्मचारी बनने की बातें जैसे हास्यास्पद हैं, वैसे ही परिस्थितियां अनुकूल होने पर नैतिक विकास करने की बात भी हास्यास्पद है । (१८६)
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मानवता मुसकाए
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