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• युग बदलते रहते हैं, युग-युग में लोगों का चिंतन बदलता रहता है,
पर शाश्वत साधना कभी नहीं बदलती । (१३९) . विवेक के विना बोला गया सत्य बहुधा असत्य से भी ज्यादा हानिप्रद
हो जाता है। (१४२) ० स्पष्टवादी होना कोई बुरी बात नहीं हैं, पर उसकी मर्यादा यह है कि वह विवेक से अनुशासित हो। यदि कोई इस मर्यादा का अतिक्रमण कर स्पष्टवादिता के नाम पर किसी का मर्मोद्घाटन करता है तो वह सत्य असत्य से ज्यादा भयंकर है। (१४४) ० जहां सरलता है, ऋजुता है, वहां सत्य है । ऋजुता और सत्य दोनों
एक ही हैं, पर्यायवाची हैं। सत्य का व्यापक रूप ही ऋजुता
है । (१४४) - दृढ निष्ठावान् व्यक्ति ही साधना में सफल हो पाता है। (१४५) ० संकल्प के बिना निष्ठा घनीभूत नहीं होती। (१४५) ० सम्प्रदाय पृथक्-पृथक् हो सकते हैं, विचारों में परस्पर मतभेद भी
हो सकता है, पर इस कारण आपस में झगड़ना, एक-दूसरे पर छींटाकशी करना, एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयत्न करना कहां तक उचित है। (१४६) ० साम्प्रदायिक भावनाओं को प्रश्रय देने वाले सम्प्रदायों का भविष्य
उज्ज्वल नहीं है, बल्कि कहना चाहिए, अंधकारमय है, असुरक्षित
है। (१४६) ० किताबी शिक्षा ही पर्याप्त नहीं है, वास्तविक शिक्षा तो जीवन से
मिलती है। (१५१) ० सैनिक शासन तत्काल लाभकारी जान पड़ता है, पर वस्तुतः वह
अच्छा नहीं है । वह जनता की अयोग्यता का सूचक है । (१५७) । ० धर्म एक रथ है। आचार और विचार उसके दो पहिए हैं। रथ की
सुदृढ़ता और कार्यवाहकता बनाए रखने के लिए यह अपेक्षित है कि उसके दोनों पहिए मजबूत हों। (१५८) ० जीवन का सर्व-सुखद पक्ष है--चरित्र । उसकी विकास-भूमि है
क्षमा । उसका परिणाम है- मैत्री। (१६१) ० असहिष्णुता से वैर बढता है । वैर चरित्र का विकार है और उससे
सुख-शांति की रेखा क्षीण हो जाती है । (१६१) ० मानवीय विचारणा का सर्वोपरि मृदु और मधुर परिपाक शांति
है। (१६१)
प्रेरक वचन
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