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० समाज कल्याण और राष्ट्र-निर्माण के लिए संयम को सर्वोच्च
प्रतिष्ठा देनी होगी। (११०) ० बड़ा वही है, जो संयमी है। (११०) ० जो जितना बड़ा त्यागी है, वह उतना ही बड़ा है। (११०) ० अणुव्रत की चिकित्सा अपने-आप में विचक्षण है, अद्भुत है । क्यों ?
इसलिए कि वह व्यक्ति-व्यक्ति में व्याप्त बुराइयों एवं अनैतिकता
की चिकित्सा कर समाज को स्वस्थता प्रदान करता है। (१११) ० सुख है अपने-आप में, अपनी वृत्तियों में, संतोष में । धन में, खाने
पीने में और ऐश-आराम में सुख खोजना नासमझी है। (११३) .० दूसरों के सुखों को लूट कर सुखी बनने की बात निरी भ्रान्ति है ।
(११३)
० नदी में स्नान करने से शरीर का मैल धुल सकता है, पाप
नहीं। (११३) ० यह सोच एक निरी भ्रान्ति है कि परमात्मा व्यक्ति को सुखी और
दुःखी बनाता है । वह तो मात्र द्रष्टा है, सबको समदृष्टि से देखता है। (११५) ० अपना भाग्य-विधाता, सुख-दुःख का कर्ता व्यक्ति स्वयं ही है, दूसरा
कोई नहीं। (११५) • अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है । महादोषों का स्रोत है । (११८) ० जो साधक दृष्टि-संयम नहीं रख पाता, उसका ब्रह्मचर्य कभी भी
खंडित हो सकता है । (१२१) ० अन्न के अभाव में कोई मर जाए, यह विवशता की स्थिति है ।
पर अधिक खाकर मरे, यह मूर्खता है, प्रथम कोटि की मूर्खता
है। (१२४) • अपरिग्रह का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति गरीब बन जाए। उसका सही अर्थ है--धन के प्रति अमूर्छा, अर्थ-संग्रह के प्रति
अनाकर्षण। (१२९) ० धन का न होना गरीबी नहीं है, अपितु धन के प्रति मूर्छा, धन
संग्रह के प्रति आकर्षण का भाव गरीबी है। (१२९) ० धन के अभाव में व्यक्ति गरीब नहीं है, अपितु गरीब वह है, जो धन
के लिए हाय-हाय करे । सबसे बड़ा गरीब वह है, जो करोड़ों-अरबों . का धन होने के उपरांत भी पंसे-पैसे के लिए बेतहाशा दौड़ता रहे,
जीवन की शांति दांव पर लगा दे। (१२९) • अनुकूल सामग्री के संयोग के अभाव में भोग-विलास न करना
ब्रह्मचर्य नहीं, बल्कि संयोग मे संयम रखना ब्रह्मचर्य है। (१३४)
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मानवता मुसकाए
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