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० दूसरों को भयमुक्त वही बना सकता है, जो स्वयं अभय होता
० अर्थ-संग्रह पाप है, चाहे किसी भी स्तर पर क्यों न हो। (१००) ० समाजगत संग्रह और राष्ट्रगत संग्रह भी व्यक्तिगत संग्रह की तरह
दोषपूर्ण हैं। (१०१) ० समाजगत संग्रह समाज में अनेक प्रकार की बुराइयों को जन्म
देता है । (१०१) ० राष्ट्र भी अनावश्यक अति-संग्रह से क्रूर बनता है। क्रूर आक्रांता
बनता है । आक्रांता संग्रह करता है। (१०१) ० धन का शांति से सम्बन्ध नहीं है, दूर का भी कोई सम्बन्ध नहीं
है। (१०१) ० शांति का एकमात्र साधन है-आत्म-संयम । आत्म-संयम का अर्थ
है---अपने द्वारा अपने लिए अपना नियंत्रण । (१०१) ० नियंत्रण मात्र अच्छा नहीं है । केवल आत्म-नियंत्रण या आत्म-संयम
अच्छा है । (१०१) ० सुख की चाह रखने वाले हर व्यक्ति को आत्म-संयम का अभ्यास
करना चाहिए। (१०२) ० बुराइयों से संघर्ष करना किसी युगविशेष की अपेक्षा नहीं, अपितु
यह एक अनवरत चलनेवाली प्रक्रिया है । (१०३) ० संकल्प जीवन के रूपान्तरण और विकास का एक महत्वपूर्ण सूत्र
० यदि स्वीकृत संकल्प के प्रति व्यक्ति दृढनिष्ठ रहता है तो उसका एक
छोटा-सा संकल्प भी उसकी संपूर्ण जीवन-धारा को मोड़ सकता है। (१०४) ० शक्ति शक्ति ही होती है । उसका उपयोग सत् के रूप में भी हो सकता है और असत् के रूप में भी । भला आदमी जहां उसे सत् के रूप में काम लेता है, वहीं बुरा आदमी उसे असत् के रूफ
में । (१०८) ० यह कैसी बात है कि व्यक्ति दूसरों के दोष देखने के लिए तो
सहस्राक्ष बन जाता है पर अपने दोष देखते वक्त दोनों आंखों को
भी मुंद लेता है। (१०९) ० व्यक्ति-निर्माण के बिना समाज-निर्माण कठिन ही नही, असंभव भी
है। (१०९) ० जितना कार्य एक निर्मित कार्यकर्ता कर सकता है, उतना कार्य
करोड़ों रुपये खर्च करने पर भी नहीं हो सकता। (१०९).
प्रेरक वचन
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