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० सत्य और अहिंसा केवल आध्यात्मिक तत्त्व ही नहीं हैं, दैनिक ____ व्यवहार में भी उनकी नितान्त आवश्यकता है। (४०) ० विरक्त वह है, जो प्राप्त भागों को स्ववशता में ठुकरा देता है।
० जो विरक्त है, वही ज्ञानी है । (४७) ० केवल शास्त्रों को पढ़ लेने मात्र से कोई विद्वान् नहीं बन जाता।
० प्रशंसा कांटों का ताज है । जिस व्यक्ति के सिर पर यह ताज रखा
जाता है, उसे बहुत सोच-समझकर चलना पड़ता है। (४९) ० गुणीजनों की प्रमोद-भाव से प्रशंसा करना व्यक्ति के लिए श्रेय-पथ
० प्रशंसा सुनकर यदि व्यक्ति उसमें लुब्ध बन जाता है, अहंकारग्रस्त हो ___ जाता है तो उसका पतन अवश्यंभावी है । (४९) ० प्रशंसा करना और सुनना-दोनों ही दोष नहीं हैं। दोष है उसमें
आसक्त होना। (५०) ० साधक आलोचना और विरोध में भी समत्व में अवस्थित रहने का
प्रयास करे । उसे सुन-देखकर रोष-आक्रोश तो करे ही नहीं, मन में हीन भावना भी न लाए। (५०) • यदि तटस्थ दृष्टि से दोष-दर्शन और आलोचना होती है तो कोई
अनुचित बात नहीं है । (५१) ० साधक हर अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में सम रहे, अपना संतुलन
न खोए । इसीमें उसकी साधना सुरक्षित है। (५१) ० संकीर्णता स्थान से नहीं, हृदय से आती है । (५२) ० किसी समाज या सम्प्रदायविशेष में रहने मात्र से व्यक्ति को संकीर्ण __या संकुचित नहीं मानना चाहिए, जबकि उसके विचार उदार हैं,
दृष्टिकोण व्यापक है, असाम्प्रदायिक है । (५३) ० तेरापंथ संघ या सम्प्रदाय की सीमाएं मेरे सत्य-दर्शन में कहीं बाधक
नहीं हैं। (५३) ० उपदेश देना मेरा कर्तव्य मात्र है, व्यवसाय नहीं है। कर्तव्य और . व्यवसाय में एक मौलिक अन्तर है। व्यवसाय करना पड़ता है,
जबकि कर्तव्य आत्म-प्रेरणा से सहज किया जाता है। (५४) ० यदि व्यक्ति निष्ठापूर्वक कर्तव्यरत रहता है तो उसका अनुकूल
परिणाम आना अवश्यंभावी है। (५५)
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मानवता मुसकाए
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