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• अनुकूल संयोग की स्थिति में मन को वश में रखना बहुत कठिन कार्य है । (१०)
• तपस्या का मर्म वही पा सकता है, जो प्रतिस्रोत में चले । ( ११, १२) • तपस्या आदि धर्म कोई भी क्यों न करे, वह मोक्ष - साधक ही है । धर्म का अधिकार नास्तिक को भी है । (१२)
• धर्म सर्वजनहिताय है, सर्वजनसुखाय है और आकाश की तरह व्यापक है । भले उसे कोई अफीम कहे, पर इससे उसकी गुणात्मकता और व्यापकता में कहीं कोई अन्तर नहीं आ सकता । ( १२ )
• अनाज का दुर्भिक्ष होने पर उसकी पूर्ति हो सकती है । दूसरे स्थानों से आयात किया जा सकता है । परन्तु नैतिकता का आयात नहीं होता । (१३)
• मनुष्य समाज-सुधार, प्रदेश - सुधार और राष्ट्र-सुधार करने से पहले स्व-सुधार न भूल जाए। (१३)
● बिना संकल्प का मन बिना ब्रेक की मोटर के समान है । (१४)
• जो अच्छाई को फैलाना चाहे, वह सबसे पहले स्वयं उसके अनुकूल आचरण करे । (१५)
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व्यक्ति-व्यक्ति के सुधार से समाज, राष्ट्र और विश्व के सुधार का मार्ग स्वतः प्रशस्त हो जायेगा । (१५)
अणुव्रत के नियमों को ग्रहण करने का मतलब गृहत्यागी बनना नहीं है । इसका तो मतलव है कि व्यक्ति जहां कहीं भी रहे, वह वहां के वातावरण को स्वस्थ और चरित्रयुक्त रखे । कम-से-कम अपना आचरण तो अवश्य ही पवित्र रखे । (१६)
• संगठन की स्थिरता के लिए विचारों का ऐक्य नितान्त आवश्यक है । बिना ऐक्य के केवल संगठन करना बालू की नींव पर मकान खड़ा करना है । (१७)
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• जिस प्रवृत्ति से हम मोक्ष के निकट जाते हैं, वह धर्म है और जिससे बन्धन के निकट जाते हैं, वह अधर्म है । (२२)
धर्म और कर्तव्य में अन्तर है । धर्म कर्तव्य है, लेकिन सभी कर्तव्य धर्म नहीं हैं । कर्तव्य देश, काल, परिस्थिति के अनुसार बदल सकते हैं, लेकिन धर्म सर्वदा सर्वत्र एक ही रहता है । (२२)
प्रेरक वचन
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