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४. जीवन-निर्माण की कला
जीवन प्रवाह
जीवन एक प्रवाह है । अनन्त काल से वह अविरल बहता आ रहा है और न जाने कब तक वह इसी प्रकार बहता रहेगा । हमें न इसके ओर का पता है और न छोर का । हम कहां से आये हैं और कहां जाएंगे, इसका हमें बिलकुल भी पता नहीं है । बीच-बीच में इसमें परिवर्तन आते रहते हैं, जिन्हें हम जीवन और मृत्यु कह देते हैं । हमारा वर्तमान ही यह बताता है कि इससे पूर्व भी कुछ था और आगे भी कुछ रहेगा । अतः आज जो कुछ हम करते हैं, वह अतीत और अनागत से असंबद्ध नहीं हो सकता ।
वर्तमान को देखें
आप अतीत और अनागत की बात भूल जायें। वर्तमान की ओर ध्यान दें। आप कहेंगे, यह तो नास्तिक दर्शन की बात है । नास्तिक लोग भूत और भविष्य को नहीं मानते । वे केवल वर्तमान को ही स्वीकार करते हैं । अतः केवल वर्तमान की बात सोचना क्या नास्तिकता नहीं है । पर एक बार आप इस बात को भूल जाएं कि आस्तिक और नास्तिक दर्शन क्या कहते हैं । यह चर्चा का विषय है । अभी हम चर्चा में नहीं जाना चाहते। हम केवल वर्तमान की बात सोचते हैं, तब ऐसा लगता है कि आज तो मनुष्य नास्तिक से भी कुछ अधिक हो गया है । नास्तिक बेचारा वर्तमान की बात तो सोचता है, पर आज का मनुष्य तो वर्तमान की बात भी नहीं सोच रहा है । इससे बढ़कर और क्या नास्तिकता हो सकती है । आज हम 'नास्तिको वेदनिन्दकः ' और 'नास्तिक अश्रद्धालु' को छोड़कर इस परिभाषा पर आ जायें तो क्या आपत्ति है कि वर्तमान की उपेक्षा करने वाला ही नास्तिक है । और दैनिक जीवन में सत्य और अहिंसा को भुला देने से बढकर वर्तमान की उपेक्षा और क्या हो सकती है । मुझे भय है कि यह प्रवाह इसी तरह चलता रहा तो न जाने भविष्य में क्या होने वाला है । अपने भविष्य के निर्माता हम स्वयं ही हैं । हम चाहें तो अपने भविष्य को बना / संवार भी सकते हैं और चाहें तो नष्ट भी कर सकते हैं । इस अर्थ में अपने परमात्मा हम स्वयं ही हैं और हमें अपने ही पुरुषार्थ से काम करना है ।
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मानवता मुसकाए
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