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________________ ३. आचार-धर्म : अहिंसा हिंसा का पाप अहिंसा की आत्मा त्याग में है । आत्मा के चारों ओर हिंसा परिक्रमा करती रहती है। भोग स्वयं हिंसा है । भोग के लिए हिंसा होती है, भोग की सुरक्षा के लिये हिंसा होती है। वस्तु के भोग को छोड़ना त्याग है । वह अहिंसा है । पर त्याग का विषय इतना ही नहीं है। अहिंसा जीवन का व्यापक स्वरूप है । अत्याग भोग से अधिक व्यापक है। जाति का मद हिंसा है । सभ्य, सुसंस्कृत और शिक्षित लोग जाति और रंग की भेदरेखा खींच मनुष्यों को अपनी परछाई जैसा मान रहे हैं, शत्रु मान रहे हैं। जाति का उन्माद उन्हें 'मनुष्य जाति एक है' इसका अनुभव नहीं होने देता। विद्या का उन्माद भी हिंसा है। पढ़े-लिखे लोग अनपढ़ व्यक्तियों से घृणा करते हैं । क्या यह आत्मा की शाश्वत सत्ता का अपमान नहीं है। ऐश्वर्यशाली लोग गरीबों को सदा हीन दृष्टि से देखना चाहते हैं । यह ऐश्वर्य का मद है, हिंसा को उभारनेवाली हिंसा है। जीवहिंसा से आत्मा का पतन होता है। इसलिये वह पाप है। जाति, विद्या और ऐश्वर्य के मद से आत्म-पतन के अतिरिक्त प्रतिहिंसा की भावना भी तीव्र होती है, सामाजिक विक्षोभ भी उत्पन्न होता है, इसलिये वह पाप की परम्परा को आगे बढ़ानेवाला पाप है । पाप की परम्परा पाप की परम्परा आगे बढ़ रही है। भाषा का उन्माद बढ़ रहा है । प्रांतीयता और राष्ट्रीयता का उन्माद बढ़ रहा है । राजनैतिक सांप्रदायिकता का उन्माद बढ़ रहा है । अत्याग का उत्कर्ष हो रहा है । हिंसा बढ़ रही है। जहां भोग का त्याग हो, उन्माद का त्याग हो, आवेग का त्याग हो, वहां अहिंसा होती है । इसलिए मैं कहता हूं, अहिंसा की आत्मा त्याग में है। त्याग से लोग कतराने लगे हैं । यह हिंसा की ओर गति है । अहिंसा उपदेश की वस्तु नहीं है । वह जीवन का आचार-धर्म है । उसकी समृद्धि के लिये त्याग को समृद्ध करना होगा। इस समृद्धि के लिये कार्य करनेवालों का अहिंसक प्रयत्न सफल हो, यह आज की सद्यस्क अपेक्षा है । आचार-धर्म : अहिंसा ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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