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धर्म-युद्ध ?
___ भारत में वह भी एक युग था, जिसमें युद्ध को भी धर्म-युद्ध कहा जाता था। मृत्यु और कारावास का दण्ड देने वाले न्यायाधीश भी धर्माधिकारी कहे जाते थे । प्रश्न होता है-युद्ध और दण्डनायक के साथ 'धर्म' विशेषण क्यों ? क्या युद्ध और बल-पूर्ण दण्ड धर्म होता है ? यहां समझने की बात यह है कि धर्म तो अहिंसक साधना में ही है। हां, सुरक्षा आदि की दृष्टि से राष्ट्रीय एवं सामाजिक जीवन में युद्ध, दण्ड आदि की अपेक्षा हो सकती है। पर युद्ध आदि में भी यहां अमर्यादा नहीं थी। शस्त्रधारी निःशस्त्र पर आक्रमण नहीं करता था। अश्वारोही पैदल सिपाही पर आघात नहीं करता था । स्त्रियों और बच्चों को नहीं मारा जाता था। इस प्रकार की मर्यादाओं और सीमाओं के कारण वह धर्म-युद्ध कहलाता था। न्यायालयों में पक्षपात और अन्याय नहीं होता था । इसी आधार पर न्यायाधीश धर्माधिकारी कहलाते थे । आज के जीवन में इसकी झलक नहीं के बराबर ही है। मैं मानता हूं, संयम और मर्यादाओं के अभाव का ही यह परिणाम है कि आज लोगों का जीवन अव्यवस्थित और क्लेशपूर्ण बन रहा है। इसलिए जीवन के हर स्तर पर संयम और मर्यादा की प्रतिष्ठा हो, यह आज की सबसे बड़ी अपेक्षा है ।
मानवता मुसकाए
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