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प्राणी की संकल्पपूर्वक घात नहीं करूंगा। व्यावहारिक जीवन में इसका कितना उपयोग है, यह आप स्वयं समझ सकते हैं। यदि इस नियम का जागरूकता से पालन किया जाए तो दूसरों से स्वत: मधुर सम्बन्ध बन जाते हैं, दूसरों की सुरक्षा अपने-आप हो जाती है। और वह सुरक्षा वास्तव में अपनी ही रक्षा है, निश्चय में अपने पर ही दया है । जैसाकि संत तुलसीदासजी ने कहा है
'तुलसी' दया न पार की, दया आपकी होय ।
तं किण ने मारे नहीं, तनै न मारे कोय ॥ -~-तुम यदि किसी को नहीं सताओ तो उसका प्रतिफल यह होगा कि लोग भी तुम्हें नहीं सताएंगे।
भिक्षु स्वामी ने इसी तथ्य को यों अभिव्यक्त किया है-कोई जीव नहीं बचाया जाता। असल में तो अपने-आपको ही बचाया जाता है । मरनेवाला पापी नहीं होता, पापी मारने वाला होता है। इसलिए जो हिंसा नहीं करता, वह अपनी आत्मा को बचाता है। उसे कलुष से लिप्त नहीं होने देता। लेकिन इतनी गहरी बात गंभीर चितक ही समझ सकते हैं, साधारण-जन नहीं । इसीलिए 'दूसरों को बचाओ'- सामान्य व्यवहार में ऐसा ही कहा जाता है। वाणी-संयम की उपादेयता
जीवन-व्यवहार में वचन का उपयोग तो अनिवार्य-सा है, किंतु उसमें संयम रहना चाहिये, यह अणुव्रत की दृष्टि है । वचन के कटु एवं असत्य प्रयोग से तरह-तरह के अनर्थ होते हैं। किसी का मर्मोद्घाटन करके व्यक्ति उसको अनायास ही अपना विरोधी तैयार कर लेता है। वाणी का प्रहार ऐसा होता है कि व्यक्ति जीवन में उसे कभी नहीं भूलता। सदा मिलकर चलने वाले भी वाणी के असंयम से कट्टर शत्रु बन जाते हैं। इसीलिये जीभ सबसे कटु एवं मीठी मानी गई है। इसी बात को दृष्टिगत रखते हुए अणुव्रत आंदोलन में एक नियम वाणी-संयम से सम्बन्धित रखा गया है। उसके आधार पर व्यावहारिक जीवन को बहत प्रशस्त बनाया जा सकता है । अनेक अड़चनें मिटाई जा सकती हैं। इस प्रकार अणुव्रतों की उपयोगिता व्यावहारिक जीवन में स्पष्ट रूप से सिद्ध होती है । जीवन सादा बनाएं
___जीवन के मुख्य तीन अङ्ग हैं-रहन-सहन, खान-पान और आचारविचार । वर्तमान जीवन-शैली के अनुसार तीनों ही बहुत बोझिल हैं। आज
व्यावहारिक जीवन और अणुव्रत
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