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की धारणा में जीवन-स्तर का जो मापदण्ड बन गया है, वह बहुत ही गलत है और वह किसी भी प्रकार निभ नहीं रहा है। पोजीशन---झठी प्रतिष्ठा की बीमारी ने सब-कुछ खोखला कर दिया है। व्यक्ति की नैतिकता, सत्यवादिता , प्रामाणिकता आदि को समाप्त कर दिया है।
व्यापारी, राज्य-कर्मचारी, अध्यापक, वैद्य, डॉक्टर आदि सभी वर्गों के लोग अनैतिक प्रवृत्तियों को पोजीशन की सुरक्षा के लिये धड़ल्ले से करते हैं, बड़े आनन्द से करते हैं। उन्हें किसी प्रकार का संकोच नहीं होता। इससे भी आगे जो लोग रिश्वत, मिलावट आदि को बुरा मानते हैं, वे भी इन प्रवृत्तियों को शान से करते हैं। इस संदर्भ में उनका तर्क यह होता है कि हमें भी आखिर इस समाज में जीना है। जब समाज ने परिस्थितियां ही ऐसी बना डाली है तो फिर हमारे सामने दूसरा चारा ही क्या है। मैं नहीं समझता, यह जीवन का बोझ, जो निभाया नहीं जा सकता, उसे लोग क्यों ढोते हैं ? क्यों नहीं अपने जीवन को सादा बनाते हैं और पोजीशन की भूठी भूख को पूरा करते हैं ।
रहन-सहन में अनेक तरह के खर्चे होते हैं। उसे बहुत सादगीपूर्ण बनाया जा सकता है। विवाह आदि के प्रसंगों पर होनेवाले भोजों में अनेक प्रकार की मिठाइयां बनाई जाती हैं, बेशुमार व्यंजन बनाए जाते हैं। इस स्थिति को देखकर मन में प्रश्न उठता है, क्या लोगों का जीवन मात्र खाने के लिए ही है ? कहना नहीं होगा, इसके पीछे अपने बड़प्पन की सुरक्षा मुख्य रूप से काम करती है। समाज इसके नीचे दबा जा रहा है। आचार-विचार कितना नीचा हो गया है, इसके विषय में तो कुछ कहने की जरूरत ही नहीं। आप सबके सामने स्थिति स्वयं स्पष्ट है।
सूत्र रूप में मैं एक ही बात कहना चाहता हूं कि आप अपने जीवन को हल्का बनाएं, सादा बनाएं। उसे नैतिकता, प्रामाणिकता, सत्यवादिता, अहिंसा, संयम, संतोष, स्वावलंबन आदि तत्त्वों से भावित करें। जीवन की समस्याओं का वास्तविक समाधान इन्हीं तत्त्वों में निहित है । जैसे-जैसे ये तत्त्व जीवनगत होते जाएंगे, वैसे-वैसे जीवन जीने का सही आनन्द अनुभव होने लगेगा । अणुव्रत के छोटे-छोटे संकल्पों को स्वीकार कर आप इस लक्ष्य को प्राप्त हो सकते हैं।
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मानवता मुसकाए
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