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करके बातें बताई जाती हैं, तभी वे ठीक से समझ पाते हैं, अन्यथा नहीं।
आध्यात्मिक जीवन तो त्यागमय ही होता है। बात दूसरे पक्ष की है । आज के लोग किसी चीज को सहसा भावी आशा से नहीं देखना चाहते। वे पहले वर्तमान को ही पकड़ते हैं। उनके चिंतन की धुरी यही रहती है-इसके आचरण से हमें इस जीवन में क्या लाभ होगा ? वे दूर की बात नहीं सोचना चाहते। परलोक सुधारने की बात उनकी समझ में कम आती है । वे कहते हैं- भविष्य के सुख की कल्पना में वर्तमान जीवन को कष्टमय बनायें, यह बात अवैज्ञानिक है। किन्तु गहराई से सोचें तो यह मात्र शब्दों का ही झंझट है। धर्म परलोक के लिये है-यह इस अपेक्षा से कह दिया जाता है कि मुक्ति इस जन्म के बाद ही मिलती है । दूसरी अपेक्षा यह है कि इंस जीवन में कुछ दैहिक कष्ट भी होता है। पर मूल में तो धर्म का लक्ष्य जीवन-शुद्धि, आत्मिक उज्ज्वलता व चेतना-जागृति ही है। धर्म और जीवन-विकास
धर्म, संयम और व्रत आदि का संबंध इहलोक-परलोक से नहीं, बल्कि जीवन-विकास से है । व्रताचरण से जीवन-शुद्धि की ही अपेक्षा रखी जा सकती है । ऐहिक सुख-सुविधा की भावना रखना उपयुक्त नहीं । व्यावहारिक जीवन का संबंध लोग अर्थ से जोड़ते हैं। पर केवल कपड़ा, रोटी, मकान, धन आदि ही व्यावहारिक जीवन नहीं, अपितु उसके और भी अंग हैं । व्यावहारिक जीवन का अर्थ है-दैनन्दिन के कार्यक्रम । लेकिन क्या वे सब इन बाह्य चीजों से ही पूरे हो जाते हैं ? कुछ आंतरिक चीजों की भी आवश्यकता रहती है। दिन में मनुष्य पचासियों काम करता है । क्या कोई भी काम उसकी सहानुभूति, उदारता, संयम, प्रेम, प्रामाणिकता के बिना हो सकता है ? स्पष्ट है, प्रत्येक काम में इन आभ्यन्तर गुणों की आवश्यकता रहती है। अन्यथा उसका व्यवहार चल नहीं सकता। और व्यवहार न चल सकने की स्थिति में जीवन दूभर बन जाता है। क्या कोई भी मनुष्य यह चाहता है कि मेरा पडौसी मेरा शत्रु बन जाए ? मेरे से कठोर व्यवहार करे ? यदि नहीं तो फिर उसे भी सलक्ष्य अपना ख्याल रखना होगा और संयम रखकर वैसा ही बर्ताव करना होगा, जिससे किसी को कष्ट न हो। दया आपकी होय
__गहराई से देखा जाए तो यह दूसरों को कष्ट से बचाने के लिये नहीं, अपितु अपनी असत् प्रवृत्ति से बचने के लिये करना चाहिये । अणुव्रत-आंदोलन का पहला नियम है-मैं चलने-फिरने वाले निरपराध
मानवता मुसकाए
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