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८०. व्यावहारिक जीवन और अणुव्रत
जीवन का लक्ष्य
मनुष्य के जीवन का लक्ष्य ऐहिक सुख-सुविधा को पाना, भौतिक सामग्री को जुटाना, धन और वैभव को एकत्रित करना नहीं है । आप पूछेंगे, फिर लक्ष्य क्या है ? लक्ष्य से तात्पर्य क्या है ? मनुष्य जीवन का लक्ष्य बहुत ऊंचा है । लक्ष्य का मतलब है - वह कहां जाना चाहता है ? उसने अपना गन्तव्य स्थल कौन-सा बनाया है ? किस अवस्था को प्राप्त करने का इच्छुक है ? इसका संक्षेप में समाधान यह है कि वह आत्म-दर्शन करना चाहता है, मुक्त होना चाहता है, निर्बन्ध अवस्था को प्राप्त होना चाहता है । दूसरे शब्दों में जन्म-मरण की शृंखला को तोड़ना, सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाना, अनंत सुखों को प्राप्त करना उसका लक्ष्य है । स्पष्ट ही है कि इस लक्ष्य के निर्धारित होने पर वह बाह्य पदार्थों में आसक्त नहीं हो सकता । पदार्थों की ओर आकृष्ट होने का अर्थ है कि वह अपने लक्ष्य से शून्य बन गया है । और लक्ष्य शून्य कोई भी काम अच्छा नहीं होता । निर्लक्ष्य गमन, भाषण, चिंतन आदि उन्मत्त के ही हो सकते हैं, विवेकवान् के नहीं ।
अनन्त सुख की साधना में बाह्य वस्तुओं का कोई भी मूल्य न होने की बात सुनकर लोगों का प्रश्न हो सकता है, क्या संसार में बाह्य वस्तुओं की कोई उपयोगिता नहीं है ? उपयोगिता नहीं है, ऐसी बात नहीं है । संसार में एकान्ततः निरर्थक चीज कोई भी नहीं है । लेकिन इतना अवश्य है कि हर वस्तु की उपयोगिता / कीमत अपने-अपने क्षेत्र में है । सब वस्तुओं का एक ही जगह उपयोग हो, यह आवश्यक नहीं । इसलिए आप यह समझें कि आत्म-साधना में वाह्य वस्तुएं एक स्थूल निमित्त बन सकती हैं, मौलिक साधन नहीं ।
जीवन के दो पक्ष
जीवन के दो पक्ष हैं - आध्यात्मिक और व्यावहारिक । जीवन को दो भागों में बांटने का मेरा मतलब जीवन को खण्डित करना नहीं है । जीवन तो एक अखण्ड वस्तु है । उसे दो भागों में बांटने का उद्देश्य है— लोगों को अपने कर्त्तव्य ठीक-ठीक जान पड़ें । साधारण लोगों को जब अलग-अलग
व्यावहारिक जीवन और अणुव्रत
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