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जाएं - यह सम्भव नहीं लगता । अलबत्ता इन सबकी कृत्रिम भेद - रेखाएं, ऊपरी सीमाएं मिट सकती हैं । वे मिट जायें - यह अणुव्रत आन्दोलन की भावना है। एक व्यक्ति दूसरे में अपना विलय कर दे, अपने को मिला दे, इस प्रकार की भावना का जागरण आवश्यक है । यद्यपि व्यक्ति अपना संपूर्ण अस्तित्व दूसरे में विलय कर दे, यह बात कठिन है, तथापि दूसरों के स्वत्व को चूसने की धृष्टता उसमें न जागे, इतना विलीनीकरण हो कम-से-कम आवश्यक है । इसी प्रकार अस्पृश्यता, हीनता, संदेहशीलता, वैमनस्य, आक्रमण और मिथ्यावाद न बढे, इतनी सीमा तक जाति, प्रदेश, राष्ट्र और धर्म-सम्प्रदायों का विलीनीकरण भी आवश्यक है । यह विलय मौलिक निधि या तात्विक गौरवमय को मिटानेवाला नहीं है । यह अति स्वार्थ, झूठे अभिमान एवं भूटे बड़प्पन की भावना का त्यागमात्र है |
इस आन्दोलन के पास त्याग -ही-त्याग की बात है। झूठ त्याग देंगे तो सच्चाई अपने-आप निखर उठेगी। दूसरों के प्रति संयम बरतेंगे तो सद्भावना अपने-आप बढेगी ।
अपने-आप में संयत रहेंगे तो शान्ति स्वंय बढेगी । यद्यपि यह बात बहुत सारे लोगों को कल्पना या भावना जैसी लगती है । इसीलिए यह स्वर जब-तब सुनने को मिलता है - अणुव्रत आन्दोलन केवल भावनाप्रधान है, कार्यप्रधान नहीं । बात कुछ सच भी है । सही भावना पहले आनी ही चाहिये । उसके बिना कार्य की अच्छाई भी कैसे आएगी ।
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मानवता मुसकाए
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