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७७. अणुव्रत-दर्शन
सत्य और अपरिग्रह अहिंसा के ही दो पहलू हैं । पर दुर्भाग्य से इनके प्रति भारतीय मानस से निष्ठा डोलती जा रही है। उसे फिर से स्थिर करने की अत्यंत आवश्यकता है । अणुव्रत-आन्दोलन उसी दिशा में एक प्रयत्न है । हृदय-परिवर्तन में मुझे विश्वास है । व्यक्ति-विकास को मैं समाज-विकास और राष्ट्र-विकास की नींव मानता हूं। कोई भी प्रयत्न सर्वथा विफल नहीं होता, इस बात में मेरी अटूट निष्ठा है। संस्कार की धार जो बहती है, वह फसल उपजाती ही है। हमारा मन शिथिल न हो, श्रद्धा न डिगे---बस, अपेक्षा इतनी-सी है।
पहली बात वैयक्तिक शान्ति की है और आखिरी है अन्तर्गष्ट्रीय शान्ति की । सभी स्तरों की शान्ति का साधन है---आत्म-संयम की शक्ति का जागरण, अर्थ पर टिकी हुई व्यवस्था का अप्रभावी होना। लोग समाजवाद की ओर झुके जा रहे हैं। व्यवस्था को सामान्य स्तर पर लाने तक की स्थिति का विरोध करता भी कौन है। विरोध तो इस बात का है- व्यक्ति का स्वतंत्र विवेक व्यवस्था के घेरे में सिमटता जा रहा है। मेरा चिन्तन है, हमें व्यक्ति के विकास को अधिक मूल्य देना चाहिए । आज अनुशासनहीनता क्यों है ? सहिष्णुता का अभाव क्यों है ? आक्रमण-भावना का विस्तार क्यों हो रहा है ? ये दोष अगर पहले भी थे तो क्यों थे ? इन सारे प्रश्नों का उत्तर एक ही होगा-व्यक्ति-व्यक्ति के अन्तर-भाव को जगाने का बहुत कम यत्न किया गया, किया जा रहा है । अपेक्षा यह है--हम इस ओर अधिक ध्यान दें, रोग का सही निदान करें। अणुव्रत-आन्दोलन की आत्मा
अणुव्रत-आन्दोलन की आत्मा अहिंसा है। हिंसा जीवन से घली-मिली रही है। फिर भी वह जीवन का व्रत नहीं बन सकी । व्रत अहिंसा है। उसे दूर रखकर मनुष्य, मनुष्य भी नहीं रह सकता। अत: वह जीवन की सर्वोपरि अपेक्षा है और इसलिये वह व्रत है। आन्दोलन की भावना
व्यक्ति मिट नहीं सकता। जाति, प्रदेश, राष्ट्र और धर्म भी मिट अणुव्रत-दर्शन
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