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________________ आप उससे सम्पूर्ण रूप से नहीं बच सकें तो कम-से-कम महीने में बीस दिन तो ब्रह्मचर्य का पालन अवश्य करें। पांचवां अणु व्रत अपरिग्रह है । अर्थ को सब प्रकार के अनर्थों की जड़ माना गया है। यद्यपि वह स्वयं अपने-आपमें जड़ है, पर इस पर जो ममत्व, मूर्छा और संग्रह की भावना है, वह पाप है। साधु इसे सर्वथा त्याग देते हैं, पर लोगों ने तो अपने को इससे चिपका लिया है। वे मानने लगे हैं कि धन ही उनका जीवन है। वे कहते हैं, धन नहीं हो तो शादी में जो पच्चास-पच्चास हजार, लाख-लाख रुपये लगते हैं, वे कहां से आयें ? अत: उन्हें संग्रह करना पड़ता है। और जहां संग्रह लक्ष्य बन जाता है, वहां अर्जिन में जायज-नाजायज का विवेक नहीं रह सकता। वहां शोषण भी चलता है, रिश्वत भी चलती है, अन्यान्य अनेक अवांछनीय बातें भी चलती हैं। चुनावों की विकृतियां चुनावों की धांधली भी आज कम नहीं है। हालांकि ईमानदार आदमी हैं ही नहीं, यह बात नहीं है। पर वे बहुत थोड़े हैं, यह बिलकुल स्पष्ट है। पैसे के बिना सीट कैसे मिले । अत: इस सीट के लिये पैसे को पानी की तरह बहना पड़ता है। वोट बटोरने के लिये न जाने कितने-कितने घृणित साधन काम में लिये जाते हैं। यहां तक कि ग्रामीणों को शराब पिला-पिलाकर मत लिये जाते हैं। यश की भूख तो मानो मनुष्य को पागल ही बना देती है। धन्य है उस भूख को, जिसके लिये मनुष्य को स्व-प्रशंसा और पर-निन्दा के अखाड़े में उतरना पड़ता है ! पार्टी का मोह भी तो कम नहीं होता। अपनी पार्टी की टांग ऊंची रखने के लिए तरह-तरह के गलत हथकंडे अपनाए जाते हैं । पार्टीबाजी गन्दगी है यह कितने खेद की बात है कि इस पार्टीबाजी में लोग हमें भी घसीटने का प्रयास करते हैं। कुछ लोग कहते हैं-'महाराज तो कांग्रेस के पक्ष में हैं, उसकी ही प्रशंसा करते हैं।' कई लोग कहते हैं-'ये हिन्दुओं का विरोध करते हैं।'........ पर भाइयो ! यह सब गलत है। यदि धर्म में राजनीति और पार्टीबाजी आ जायेगी, तब तो फिर बचा ही कौन रहेगा। हम तो पार्टीबाजी को गन्दगी मानते हैं। उसमें हाथ डालना ही पाप है। हमारे लिये सब समान हैं। यहां पर हरिजन-महाजन में कोई भेद नहीं है। हिन्दू-मुसलमान में कोई फर्क नहीं है। यहां का दरवाजा तो हर एक के लिये २०४ मानवता मुसकाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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