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संघर्ष का मूल
मजदूर चाहते हैं- हमें काम तो थोड़ा करना पड़े और वेतन अधिक मिल जाये । मिल-मालिक चाहते हैं-मजदूरों से काम तो ज्यादा लिया जाये और वेतन कम दिया जाये । बोनस भी जहां तक बन सके, नहीं दी जाए। इसी से दोनों परस्पर विरोधी आक्षेप लगाते हैं। हड़तालें होती हैं। आखिर वैमनस्य बढ जाता है और दोनों को ही हानि उठानी पड़ती है। वे तो लड़ते हैं सो लड़ते ही हैं, देश का भी बहुत नुकशान होता है। जनता भी बीच में पिस जाती है। इस प्रकार लाभ किसी का नहीं होता और खाइयां चौड़ी होती जाती हैं। अहिंसक समाज का आधार
आज प्रत्येक व्यक्ति अधिक-से-अधिक परिग्रह के संग्रह में जुटा हुआ है। इस परिस्थिति में अहिंसा की वृत्ति पनपे भी तो कैसे। जब लोगों की परिग्रह-संग्रह की वृत्ति मिटेगी, तब ही सुलस जैसी अहिंसक वृत्ति उनके हृदय में जागेगी। सुलस एक कसाई का पुत्र था। उसका पिता प्रतिदिन पांच सौ भैसे मारा करता था। अतः उसका बचपन अत्यन्त हिंसक वातावरण में गुजरा। पर इसके उपरान्त भी हिंसा से उसे बड़ी घृणा थी। इसीलिए वह किसी प्राणी का वध नहीं करना चाहता था। पिता का अंतिम समय निकट आया तो उसने सुलस को बुलाया और पूछा--'पुत्र ! क्या तुम मेरी एक बात मानोगे ?' सुलस बोला-'पिताश्री ! इसमें पूछने की क्या बात है।' पिता बोला-'तो ठीक है, मेरी मृत्यु के बाद गृहपति का उत्तरदायित्व तुम्हें संभालना होगा।' सुलस ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।
पिता की मृत्यु के बाद एक दिन पारिवारिक जन एवं सगे-सम्बन्धी एकत्रित हुए और उसे गृहपति का भार संभलाने लगे। गृहपति का भार संभालने की रस्म के अनुसार सुलस को एक भैंसे का वध करना आवश्यक था। पर वह ऐसा कर नहीं सकता था । ऐसी स्थिति में वहां एक विचित्रही दृश्य उपस्थित हो गया । पारिवारिक जनों एवं सम्बन्धियों द्वारा उस पर बार-बार दबाव डाला जा रहा था । पर वह भैसे का वध न करने के अपने निश्चय पर मेरु की तरह अटल था। अन्ततः पिता की आज्ञा का तर्क दिया गया। पारिवारिक और सम्बन्धी बोले-'तुम्हें पिता की आज्ञा तो माननी ही पड़ेगी और उसके लिए आज तलवार चलानी आवश्यक है। तुम उससे बच नहीं सकते।' उसने उन्हें बहुत समझाया, पर उनमें से कोई भी उसकी बात मानने तो तैयार नहीं हुआ। आखिर सुलस को एक उपाय सूझा । उसने पूछा-'क्या आज मुझे तलवार चलाना आवश्यक ही
अहिंसक समाज-व्यवस्था
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