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________________ (१) सर्व प्राणियों में अपनत्व की भावना । (२) इच्छा-परिमाण। (३) साम्प्रदायिक अनाग्रह । (४) बड़प्पन की भावना का अन्त । ये चार बातें यदि समाज में आ जाती हैं तो समाज स्वयं अहिंसा के मार्ग पर चल पड़ेगा। ___ यद्यपि आरम्भ और परिग्रह को एक गृहस्थ सर्वथा नहीं छोड़ सकता। पर वह महारम्भ और महापरिग्रह को तो छोड़े। गृहस्थ के पास यदि कुछ भी न रहे तो वह सुखी नहीं रह सकता और ज्यादा हो जाये तो भी सुखी नहीं रह सकता। उसका मार्ग मध्यम मार्ग है। उसके पास कुछ हो, यह मेरी भाषा नहीं है। मेरा इष्ट है-उसकी भावना अल्पारम्भ की ओर रहे। उसमें संकोच और नियंत्रण रहे। इससे व्यक्ति भी संकट में नहीं आता और समाज का काम भी अच्छे ढंग से चल जाता है। इसके विपरीत एक व्यक्ति महा-परिग्रह की ओर मुड़ता है तो स्वभावतः अन्य व्यक्तियों का शोषण तो होगा ही। यदि एक व्यक्ति दस व्यक्तियों की रसोई अकेला समेट ले तो शेष नौ व्यक्तियों को तो भूखा रहना ही पड़ेगा। समविभाग तेरापंथ संघ में यह मर्यादा है कि यदि दस प्याले पानी के आयें और दस साधु ही पानी पीने वाले हैं तो हर साधु एक-एक प्याला पानी पीकर रह जायेगा। दूसरों के विभाग का पानी पीने का किसी को कोई अधिकार नहीं है । यदि कोई साधु इस मर्यादा का उल्लंघन कर देता है तो उसे कड़ा प्रायश्चित्त आता है। एक बार ऐसा ही हुआ। पानी कम मिला था और पीनेवाले साधु ज्यादा थे। अतः अग्रगण्य साधु ने निदेश दिया कि सब साधु पानी माप-मापकर पीये । परन्तु एक साधु ने अग्रगण्य के उपरोक्त निदेश का अतिक्रमण कर बिना मापे ही पानी पी लिया। अग्रगण्य ने अपने दायित्व पर ध्यान देकर उससे पूछा-'पानी बिना मापे कैसे पीया ?' उसने लापरवाही से उत्तर दिया-'प्यास लगी थी, इसलिए पी लिया।' अग्रगण्य ने कहा---'पर प्यास तो सभी को लगी थी। तुमने दूसरों के हिस्से का पानी कैसे पीया ?' उससे इसका न तो कोई उत्तर देते बना और न ही उसने अपनी भूल ही स्वीकार की । फलतः उसे संघ से पृथक् कर दिया गया। हां, तो मैं कह रहा था कि एक व्यक्ति यदि महापरिग्रही होता है तो परोक्षतः वह दूसरों का शोषक तो हो ही जाता है । अत: अहिंसक समाज में महापरिग्रही व्यक्ति को स्थान नहीं मिल सकता। २०० मानवता मुसकाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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