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बहुत ही थोड़े लोग बन सकेंगे। अत: हम इस कल्पना को भी छोड़ दें। बस, सबसे पहले एक काम करें और वह यह कि आज जन-जन के मन में जो अतिभोग, अति-परिग्रह तथा अतिहिंसा के भाव आ गये हैं, उन्हें मिटाने का प्रयत्न करें।
___आज जीवन का साध्य ही गलत हो गया है। अधिकतर लोगों ने भोग और परिग्रह को ही अपना साध्य मान लिया है। यह सच है कि हिंसा और परिग्रह के बिना एक गृहस्थ का जीवन चल नहीं सकता। ठीक उसी तरह जिस तरह बिना पटरी के इंजन नहीं चल सकता। लेकिन वह साध्य नहीं हो सकता । अत: सबसे पहले अपने दृष्टिकोण को ठीक करने की आवश्यकता है।
एक व्यक्ति ने वार्तालाप के प्रसंग में कहा-'जीवन के लिए जो आवश्यक कार्य हैं, मैं उन्हें अहिंसा ही मनाता हूं।' फिर उसने गीता का उदाहरण दिया। बोला-'गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को लड़ने के लिए प्रेरित किया है। वह यदि हिंसा होती तो श्रीकृष्ण ऐसा कैसे कहते।' मैंने कहा-'है तो वह हिंसा ही। हां, यह जरूर है कि वह हिंसा उस समय आवश्यक हो गई थी। उसके बिना वहां दूसरा कोई चारा नहीं था। अन्यायियों और दुष्टों को दबाने के लिए उन्होंने अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित किया था। पर हिंसा अहिंसा कैसे हो सकती है।' आज भी हमें इसी प्रश्न को पहले लेना है। आज जीवन का लक्ष्य ही गलत हो गया है। लोग किसी प्रकार से रुपये कमाना ही अपना लक्ष्य मानने लगे हैं। पर मेरी दृष्टि में यह सर्वथा गलत दृष्टिकोण है। हमें इसे बदलना होगा । अहिंसक समाजरचना का यही पहला कदम होगा। अहिंसक समाज के चार मानदण्ड
जैसा कि मैंने प्रारंभ में कहा, वर्तमान अशान्ति की जड़ हिंसा है। वही विविधमुखी होकर अनेक मार्गों से बाहर निकल आती है। उसके मुख्य चार कारण हैं
(१) ममत्व। (२) इच्छाओं का विस्तार । (३) साम्प्रदायिक आग्रह । (४) बड़प्पन की स्पर्धा ।
मेरा विश्वास है, यदि ये चारों कारण मिट जाते हैं तो अहिंसक समाज की परिकल्पना स्वयं सामने आ जाएगी। इस दृष्टि से अहिंसक समाज के भी चार मानदण्ड होंगे
अहिंसक समाज-व्यवस्था
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