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अलगाव भी पलते रहते हैं। प्रेमपरक समाज-व्यवस्था में ऐसा नहीं होगा। उसमें भय के स्थान पर अभय, संदेह के स्थान पर विश्वास और अलगाव के स्थान पर निकटता का वास होगा।
प्रेमपरक समाज-व्यवस्था में अल्पमत और बहुमत का भी झगड़ा नहीं रहेगा। वहां कोई भी कानून ६० प्रतिशत और ४० प्रतिशत मतों के हिसाब से स्वीकृत नहीं होगा । वहां जो कुछ होगा, वह शत-प्रतिशत मतों से ही स्वीकृत होगा । वास्तव में अल्पमत और बहुमत-यह एक झगड़ा है । बहुधा बहुमत से कोई बिल पास तो हो जाता है। पर अल्पमत वाले हमेशा इस प्रयत्न में रहते हैं कि जैसे-तैसे उसे असफल बनाया जाये। वे लोग हमेशा इस ताक में रहते हैं कि किसी तरह से सत्तारुढ दल को परास्त किया जाए। इससे आपस में संदेह बढता है और फिर अलगाव होता चला जाता है। पर अहिंसक समाज-व्यवस्था में ऐसा नहीं होगा। वहां तो सब लोग जैसा उचित समझेंगे, वैसा कानून बना लेंगे और फिर सारे ही उसका पालन करेंगे। संदर्भ तेरापंथ का
इस संबंध में एक प्रश्न प्राय: आया करता है--क्या ऐसी व्यवस्था संभव है ? उत्तर में मैं आपको तेरापंथ संघ का उदाहरण देना चाहता हूं। वहां आज भी किसी विषय पर वोट नहीं लिये जाते। इसका मतलब यह नहीं कि किसी सदस्य को चिन्तन करने का अधिकार ही नहीं है। हर सदस्य को चितन का उन्मुक्त अधिकार है। सभी अपने-अपने ढंग से चिन्तन कर सकते हैं। पर वे केवल अपने विचारों को ही महत्व नहीं देते, बल्कि अपने-अपने विचार आचार्य के सामने रख देते हैं। आचार्य सब के विचार सुनते हैं और अन्त में जैसा उचित समभते हैं, वैसा निर्णय दे देते हैं । यद्यपि सदस्यों में आपस में विचार-भेद हो सकता है, पर निर्णय में वैध नहीं होता। आचार्य ने जो कुछ कह दिया, वह सबके लिए समान रूप से मान्य होता है। पर यह तो एक साधक-समाजविशेष की बात है । साधारण जन-समाज में ऐसा होना संभव नहीं लगता। अत: विवश होकर वहां वोटिंग करानी पड़ती है। पर जो कुछ हो रहा है, उसका फल भी तो लोगों को ही भोगना पड़ रहा है। इसीसे तो अहिंसक समाजव्यवस्था या अणुव्रत समाज-व्यवस्था की परिवरपना लोगों के सामने आ
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मानवता मुसकाए
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