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७१. अणुव्रत समाज-व्यवस्था
अणुव्रत का कार्य व्यापक है
एक दष्टि से अण व्रत की अपनी कोई अलग समाज-व्यवस्था नहीं है। वह तो आज जो समाज-व्यवस्था है, उसमें ही शोधन चाहता है। वह यदि शोधित हो जाती है तो अपने-आप वह अणुव्रत से अविपरीत हो जायेगी। आप जानते हैं, अण व्रत तो एक नैतिक आचरण-प्रधान आन्दोलन है। अतः उसमें एक किसान भी आ सकता है, एक मजदूर भी आ सकता है और एक व्यापारी भी आ सकता है। एक स्वर्णकार भी आ सकता है और एक चर्मकार भी आ सकता है। एक राज्य कर्मचारी भी आ सकता है और एक नेता भी आ सकता है। अणुव्रती बनने का मतलब यह नहीं कि व्यक्ति अपना काम-धंधा छोड़ दे । अणवती बनने का मतलब तो यह है कि वह चाहे कोई भी काम क्यों न करे, वह अणुव्रत-भावना के विपरीत नहीं होना चाहिए। उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति पर नैतिकता की छाप होनी चाहिए, जिससे कि दूसरे व्यक्ति भी उससे प्रेरणा पा सकें। इसलिए अणुव्रत का कार्य एक व्यापक कार्य है। वह किसी समाज-विशेष में सीमित नहीं हो सकता और इसीलिए अणुव्रत की अपनी कोई स्वतंत्र समाज-व्यवस्था नहीं है । जो व्यक्ति अणुव्रती बनता है, वह सदा इस वाक्य को सामने रखता है-- 'जागरह णरा णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी'---मानव हमेशा जागृत रहे । जो जागृत रहता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है। इस दृष्टि से अणुव्रतभावना जागृत मनुष्य में ही प्रवेश पा सकती है। पर वह यदि केवल एक, दो, पांच, दस व्यक्तियों में ही रहे तो व्यक्तिवादी ही रहा। आज तो हम समाज की बात कर रहे हैं। एक-एक व्यक्ति से लेकर वह सारे समाज में व्याप्त बने—यह आज अत्यन्त आवश्यक है। दो प्रकार की समाज-व्यस्वथा
समाज-व्यवस्था की पृष्ठभूमि में दो बातें विशेष विचारणीय हैं। वहां या तो दण्ड काम करता है या प्रेम । हमें यह सोचना है कि इन दोनों में से हमें कौन-सी समाज-व्यवस्था अभीष्ट है ? दण्ड पर आधारित समाजव्यवस्था में यद्यपि व्यवस्था बनती है, पर उसके साथ-साथ भय, संदेह और
अणुव्रत समाज-व्यवस्था
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