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________________ नहीं बना सके, तब फिर क्या आप उसे नैतिक बना देंगे ?' मैंने कहा- 'मैं कब दावा करता हूं कि समूचे विश्व को नैतिक बना दूंगा। नैतिकता की लौ किसी-न-किसी रूप में जलती रहे---मेरा प्रयास इतना ही है । अनैतिकता नैतिकता को निगल जाए-वह दिन विश्व को कभी न देखना पड़े ।' व्यवस्था-परिवर्तन : हृदय-परिवर्तन अहिंसा का घोष हजारों वर्षों से होता रहा है, तथापि हिंसा का साम्राज्य आज भी ज्यों-का-त्यों है । हिंसा के कारणों को मिटाए बिना अहिंसा सफल नहीं हो सकती। इस विचार ने भी हमारे चितन को आगे बढाया । हमें लगा कि आज का मानस हर वस्तु को भौतिकता की कसौटी पर कसता है । जो तत्त्व सामाजिक सुख-सुविधा न दे सके, वह अनुपयोगी माना जाता है । अहिंसा के द्वारा जीवन की आवश्यकताएं पूरी नहीं होतीं, इसलिए वह अनुपयोगी है। चितन की यह रेखा भूल के बिन्दुओं से बनी है और बनती जा रही है। व्यवस्था और अहिंसा के परिणामों को एक तुला से तोलना अपने-आप में बड़ी भूल है। व्यवस्था का परिवर्तन शक्ति या सत्ता से हो सकता है--यह समाजवाद का मूल है। हृदय का परिवर्तन अहिंसा से ही होता है । इसका मूल व्यक्ति है । एक साथ सबको मनवाने की बात अहिंसा के क्षेत्र में नहीं है । मूल सुधार की पद्धति यही है कि व्यवस्था को व्यवस्था की दृष्टि से और अहिंसा को अहिंसा की दृष्टि से देखा जाये । जड़ की बात कुछ गंभीर चिंतन के स्रोत से ऐसा उच्छ्वास मिला कि अणुव्रतआंदोलन जड़ की बात नहीं करता, वह केवल ऊपर-ऊपर को छूता है । हमने चिंतन किया, जड़ की बात फिर क्या है ? क्या आर्थिक स्थिति का सुधार ही जड़ की बात है ? हिंसा के सामने अहिंसात्मक भावना का वातावरण पैदा करना क्या जड़ की बात नहीं है ? ....... जीवन की सुविधा हो, वैसी सुविधा से मेरा विरोध नहीं है। पर आर्थिक व्यवस्था का सुधार ही अहिंसा का मूल है-इस विचार से मैं सहमत नहीं हूं। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न राष्ट्र आज कितने अशांत और उलझे हुए हैं, यह मुझे बताने की जरूरत नहीं। भारत की स्थिति उनसे सर्वथा भिन्न है । यद्यपि वह अर्थ-व्यवस्था का संतुलित समाधान नहीं पा सका है। ____अनाक्रमण, शांति और अपने अधिकार-क्षेत्र में संतुष्ट रहने का जो भारतीय-मानस का चिंतन है, वह अहिंसा की चिरकालीन परम्परा का ही तो परिणाम है। समाज के मुखिया यदि सामूहिक हित की व्यवस्था और अहिंसा में संयम की साधना : परिस्थिति का अन्त १८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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