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________________ भी प्यासों के पास जाते हैं । देखो, घर-घर में नल लगे हुए हैं ।' दुतरफा विरोध आवश्यक माना ऊहापोह खड़ा अणुव्रत का कार्य आगे बढा । जन साधारण ने इसे तो हमारी शक्ति इस ओर अधिक लगी । इसने एक नया किया । हमारे जैन भाई कहने लगे - ' आचार्यजी जैन बनने पर बल नहीं देते । उन्होंने तेरापंथ के प्रचार की गति शिथिल कर दी । मैंने कहा 'जैन, बौद्ध, वैदिक आदि सम्प्रदाय हैं । धर्म है अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । मैं धर्म के मौलिक स्वरूप के प्रति जन-मानस में आस्था भरना चाहता हूं | क्या अहिंसा के सिवाय जैन धर्म का कोई अस्तित्व है । अहिंसा का प्रसार क्या जैन धर्म और तेरापंथ का प्रचार नहीं है । अहिंसा और जैनधर्म के द्वैत के चितन को मैं मानस की संकीर्णता मानता हूं ।' एक ओर यह अन्दर का विरोध था तो दूसरी ओर इसका उल्टा प्रवाह चला । अजैन क्षेत्रों में यह चर्चा तीव्र होने लगी कि आचार्यजी अणुव्रत आंदोलन के जरिए सबको जैन बनना चाहते हैं । यह आंदोलन सांप्रदायिक है । हम दोनों स्थितियों को आश्चर्य एवं तटस्थ भाव से पढते रहे । कुछ लोगों ने यह प्रचार किया - ' आचार्यजी को प्रशंसा की भूख जाग गई है । वे अणुव्रत आंदोलन के बहाने अपना सिक्का जमाना चाहते हैं।' इसे भी हम सुनते रहे । कुछ लोगों का सुझाव आया कि यह आंदोलन बहुत आवश्यक है । इसका प्रचार सतत और तीव्र गति से होना चाहिए। मैंने सोचा, यह नैतिकता का आंदोलन है, इसलिए इसका मार्ग-दर्शन मैं ही करूं तो अच्छा रहेगा । पर यह भी निर्विवाद नहीं रह सका । चर्चा चली कि यह गृहस्थों का पंथ है, इसका नेतृत्व आचार्यजी कैसे कर सकते हैं। साधुओं को ऐसी प्रवृत्तियों से निर्लिप्त रहना चाहिए। मैंने इस स्थिति को भी संभाला। लोगों को समझाया कि मैं असंयम का नेतृत्व नहीं कर रहा हूं । संयम का नेतृत्व यदि साधु लोग नहीं करेंगे तो क्या राजनयिक करेंगे । वे नियंत्रण कर सकते हैं, पर संयम के प्रेरक नहीं बन सकते । संयम की प्रेरणा वे ही दे सकते हैं, जो स्वयं संयत हों । छोटों के दिल में भ्रांति का बीज बड़ों के असंयम ने ही तो बोया है । सारे संसार को नैतिक बना देंगे ? अणुव्रत आंदोलन के कार्य ने गति पकड़ी । छुटपुट प्रश्न स्वयं धुल गए । चर्चा का स्तर कुछ बदला । चिंतनशील व्यक्तियों ने कहा- 'भगवान महावीर हुए, महात्मा बुद्ध हुए, महात्मा गांधी हुए। वे भी पूरे विश्व को नैतिक १८८ मानवता मुसकाए Jain Education International ---- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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