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शांति क्यों नहीं प्राप्त होगी । लोग आनन्द चाहते हैं, शान्ति की प्यास है । सम्भव है, उन्हें मार्ग न मिल रहा हो । कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं, जो जानबूझकर बुराई करें और अशान्ति पाते रहें । किंतु सब लोग तो ऐसे नहीं हैं । कुछ लोग बुराई को बुराई समझ लें तो उसे छोड़ भी सकते हैं । अच्छा हो, हमारा अनुभव लोगों तक पहुंचे | पर पहुंचे कैसे ? जीवन भर पद-यात्रा का व्रत, वाहन प्रयोग का निषेध । आखिर हमने इसका समाधान ढूंढा कि लोग हमारे पास पहुंचें और हम उन तक पहुंचें। आपस में विचार-विनिमय करें । उनके अनुभव लें और अपने अनुभव दें । कुछ लोग प्रेरणा पा मेरे पास आने लगे । प्रतिकूल परिस्थिति का ज्वार आया । कुछ लोगों ने इस आशय की टिप्पणियां शुरू की --- ' आचार्यजी के भक्त सेठों ने थैलियों का मुंह खोल रखा है | उसके बल पर बड़े-बड़े आदमियों को लाया जा रहा है और उनसे प्रशस्तियां लिखवाकर या बुलवाकर महत्वाकांक्षाएं पूरी की जा रही हैं ।' हम मौन रहे । उन तथ्यहीन आलोचनाओं को पीते रहे । अलबत्ता इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रमुख प्रमुख व्यक्तियों से मिलना और उनके मनोभावों को जानना हमारा लक्ष्य था । बात रही आने-जाने की । हम रहे पदयात्री । हमारे लिए दुनिया की दूरी आज भी वही है, जो पहले थी, जबकि गृहस्थों के लिए इस वैज्ञानिक युग में दुनिया बहुत छोटी हो गई है । हमारी अशक्यता को ध्यान में रख यदि प्रमुख व्यक्ति हमारे पास आते तो वह कौन-सा दोष था ! हमारे अनुभव उनको भाते तो प्रशंसा भी करते । उसका सम्बन्ध उनकी मनोवृत्ति से था या हमसे ?
प्रारम्भिक स्थिति का अध्ययन कर हमने अणुव्रत आंदोलन शुरू किया । उस समय उसके इतने व्यापक रूप की कल्पना हमारे दिमाग में नहीं थी । हमारा चिंतन था - ' - 'चलो, बिलकुल न होने की अपेक्षा थोड़ा बहुत जो कुछ भी हो, वह अच्छा है ।'
अणुव्रत का द्वार सबके लिए खुला था । यह भी एक परिस्थिति बन गई । कुछ मेरे ही अनुयायी इसका विरोध करने लगे । उनका विरोध-सूत्र यह बना कि आचार्यजी जैन और अजैन सबको अणुव्रती बना रहे हैं, स्पृश्य और अस्पृश्य को एक धागे में पिरो रहे हैं । हम उसे भी सुनते रहे । थोड़ा समय बीता । हमारे साधु भी लोगों के पास पहुंचने लगे । उसका भी विरोध हुआ । एक व्यक्ति ने मुझसे कहा - 'हमारे साधु घर-घर जाते हैं, इससे उनकी गरिमा पर आंच आती है।' मैंने उससे कहा - 'हमारे पूज्य आचार्य भिक्षु स्वामी ने दुकान-दुकान पर साधुओं को भेजा था । मैं उसे आदर्श मानकर चलता हूं ।' किसी ने कहा - 'कुआं प्यासे के पास नहीं जाता है, प्यासा कुएं के पास आता है ।' मैंने कहा - 'कभी यह भी हुआ होगा । पर आज तो कुएं
संयम की साधना : परिस्थिति का अन्त
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