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७०. संयम की साधना : परिस्थिति का अन्त
मैं परिस्थिवाद का विरोधी हूं
__ आज के लोगों का परिस्थितिवाद की ओर सहज झुकाव है । लोग आते हैं, नैतिक-विकास की बातें चलती हैं । तब पहले-पहल लगभग यह स्वर सुनने को मिलता है-'परिस्थितियां सुधरे बिना नैतिक विकास कैसे हो ?' मैं उनसे कहता हूं----'इसका अर्थ यह हुआ कि परिस्थितियां सुधर जाएंगी, अनैतिकता बरतने की आवश्यकता नहीं होगी, तब आप नैतिक विकास करना चाहेंगे।'
___ मैं इस परिस्थितिवाद का घोर विरोधी हूं। सारे दांत गिर जाने पर सुपारी न खाने और मृत्यु-शय्या पर सोकर ब्रह्मचारी बनने की बातें जैसे हास्यास्पद हैं, वैसे ही परिस्थितियां अनुकूल होने पर नैतिक विकास करने की बात भी हास्यास्पद है।
चर्चा आगे बढती है । वे अपने तर्क प्रस्तुत करते हैं, मैं अपना अनुभव देता हूं। आप स्वयं सोचें कि दोनों मैं कौन अधिक वास्तविक है ? तर्क कोरा बुद्धि का व्यायाम है । वह आप भी कर सकते हैं और मैं भी कर सकता हूं। पर अनुभव सत्य का निचोड़ है। मेरा अनुभव है कि परिस्थितियों के सामने घुटने टेकने वाला गिरता है और उनसे लड़ने वाला उठता है, आगे बढ़ता
कैसी-कैसी परिस्थितियां !
जैन मुनि के जीवन का मतलब ही है---परिस्थितियों से लड़ते रहना। मैं एक जैन मुनि हूं। मेरे पूर्वाचार्य ने मुझे अपना दायित्व सौंपा, उसे भी वहन कर रहा हूं। इसलिए परिस्थितियां मेरे सामने और अधिक विकट बनकर आती हैं। जीवन की व्यक्तिगत बातों और पारिपाश्विक उतारचढावों को दो क्षण के लिए जाने भी दं, अणुव्रत-आन्दोलन भी मेरे सामने एक परिस्थित रहता है।
आज से दस वर्ष पहले की बात है-मैंने सोचा--जो तत्त्व हमें मिला है, वह सबके लिए हितकर है । संयम की साधना से हमें आनन्द मिला, शांति मिली । दूसरे लोग भी इसकी साधना करें तो उन्हें आनन्द क्यों नहीं मिलेगा।
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.. मानवता मुसकाए
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