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________________ विनिमय करके समाज बनाया। पर आज तो समाज कार्य का विनिमय न रहकर स्वार्थ-साधना का अड्डा बन रहा है । इसीलिए आज परस्पर सहयोग की भावना लुप्त हो रही है। उसका स्थान संदेहशीलता ने ले लिया है । आज समाज के लोग एक-दूसरे को संदेहभरी दृष्टि से देखते हैं । इस संदेहशीलता का अगर कोई निराकरण हो सकता है तो मेरी दृष्टि में एकमात्र संयम ही हो सकता है । ऐसा लगता है, असंयम आज अति की सीमा में पहुंच गया है। क्या विद्यार्थी, क्या अध्यापक, क्या मजदूर, क्या महिला, क्या पुरुष, क्या राजनेता, किसी भी वर्ग को क्यों न देखा जाए, उसमें घोर असंयम छाया हुआ है । ऐसा प्रतिभासित होता है कि सारा वातावरण ही असंयममय बन गया है। मनुष्य तो असंयत बना सो बना, पर आज तो प्रकृति भी असंयत जैसी बन गई है। आप रोज समाचार-पत्र पढते हैं। कहीं वर्षा से प्रलय हो रहा है तो कहीं लोग पानी की बूंद-बूंद के लिए तरस रहे हैं। गर्मी भी इस वर्ष क्या कम पड़ी थी। मेरी समझ में प्रकृति के संतुलन में मनुष्य के संतुलन का भी एक सीमा तक प्रभाव पड़ सकता है । आज मनुष्य ने अपना संयम खो दिया है तो प्रकृति भी इस प्रभाव से मुक्त कैसे रह सकती है । अतः उसने भी मानो अपने बंधन तोड़ दिए हैं और वह मनुष्य के संहार की दिशा में अग्रसर हो रही है । अग्रणी आगे आएं आज आवश्यकता है कि लोग असंयम के अंधानुकरण से बचें। किसी व्यक्ति ने किसी कारणवश कुछ असंयम कर भी लिया तो दूसरों को उसका अनुकरण करना आवश्यक नहीं है। लोग गतानुगतिक होते हैं। एक बड़ा आदमी कुछ कर लेता है तो दूसरे भी उसका अनुकरण करना चाहेंगे । प्रसंग महाकवि माघ का एक बार प्रसिद्ध महाकवि माघ शौचादि से निवृत्त हो नदी के किनारे हाथ धो रहे थे। तभी उनके मन में विचार आया कि कल शौच के लिए तो पुन: मुझे यहाँ आना ही है और उसके लिए लोटा भी लाना पड़ेगा। इस स्थिति में क्या यह अच्छा नहीं होगा कि मैं आज इसे यहीं-कहीं गाड़ जाऊं। कल इसे निकालकर वापस काम में ले लूंगा। इस चिंतन के साथ उन्होंने उसी समय उस लोटे को गाड़ दिया। आस-पास में कुछ लोग भी बैठे हुए थे। उन्होंने सोचा, माघ मिट्टी खोदक र लोटे को उसमें गाड़ रहे हैं तो जरूर कोई रहस्य है। भला महाकवि माघ जिस कार्य को करते हैं, अवश्य ही वह अच्छा होगा। यह सोच उन्होंने भी अपने-अपने लोटे वहीं आस-पास गाड़ दिए और अपने-अपने घर चले गए। एक गड़रिया व्हां खड़ा-खड़ा वर्तमान युग में अणुव्रत की अपेक्षा १८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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