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जानते कि संसार को मिटाने से कितना बड़ा अनर्थ हो सकता है । राजनीति में संयम नहीं है । उसका लक्ष्य है - जो प्राप्त हो गया, उससे और अधिक प्राप्त किया जाए। वहां किसी दूसरे की सत्ता को हड़पना भी आदेय है, क्षम्य है | राजनयिक अपना एकछत्र शासन चाहते हैं । पर उन्हें यह समझ लेना है कि ऐसा अभी तो होने वाला नहीं है । वासुदेव तथा चक्रवर्ती यदि ऐसा चाहें तो कर भी सकते हैं । पर इस जमाने में वह स्थिति है नहीं । हां, संयमी सारे संसार पर अपना एकछत्र शासन चला सकता है । क्योंकि जिसने अपने मन और इन्द्रियों पर शासन कर लिया है, वह फिर किसी पर अनुशासन करना नहीं चाहता । इसलिए उसके सामने कोई प्रतिस्पर्धा नहीं रहती । इस स्थिति में वह सारे संसार का एकछत्र राजा होता है । कहा गया है
आशाया ये दासाः, ते दासा सर्वलोकस्य । आशा दासी येषां तेषां दासायते लोकः ॥ - जो आशा के दास हैं, वे सारे संसार के दास हैं । इसके विपरीत आशा जिनकी दासी है, उनका सारा संसार ही दास है । अतः या तो मुनि संसार का एकछत्र राज्य कर सकते हैं या फिर वासुदेव और चक्रवर्ती । तब फिर अपने-अपने नेतृत्व को आगे लाकर आज सारे संसार को क्यों संत्रस्त किया जा रहा है, यह समझ में नहीं आ रहा है ।
भ्रष्टाचार का कसता शिकंजा
आज प्रत्येक व्यक्ति के मुंह से सहसा आहें निकल आती | आह सुख की भी होती है और दुःख की भी । सुख की आह हल्की होती है और दुःख की आह लम्बी होती है । आज तो अधिकतर लम्बी आहें ही निकलती हैं । इससे स्पष्ट हैं कि आज सारा संसार दुःख - संत्रस्त है । चारों ओर भ्रष्टाचार छाया हुआ रहे तो सुख की अनुभूति रहे भी तो कैसे ।
भ्रष्टाचार की यह स्थिति है कि जिनका इसे मिटाने का दायित्व है, वे लोग स्वयं ही भ्रष्ट हो गए हैं, अनैतिक बन गए हैं। यहां तक कि वरिष्ठ नेता भी इस आशय की बात कह देते हैं कि यह उनके हाथ की बात नहीं है । अतः राजनीति को पुनः मुड़कर देखना है । यदि वह ऐसी ही चलती रही तो कल्पना नहीं की जा सकती कि आगे चलकर क्या दशा होगी ।
असंयम और प्रकृति
सामाजिक जीवन भी आज अनेक समस्याओं का केन्द्र बन रहा है । किसी जमाने में समाज की कल्पना शायद इसलिए हुई थी कि मनुष्य अकेला शांति से नहीं रह सकता था । अतः उसने परस्पर सहयोग के लक्ष्य से कार्य का
मानवता मुसकाए
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