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६९. वर्तमान युग में अणुव्रत को अपेक्षा
धर्म क्या है ?
जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं ।
धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥ यह आर्षवाणी है । इसमें कहा गया है-संसार एक प्रवाह है । जरा, मरण, रोग, शोक, चिन्ता आदि के वश में होकर मनुष्य इस प्रवाह में बहता जा रहा है। इसके साथ बहता हुआ वह न जाने किस अथाह समुद्र में विलुप्त हो जाए। पर उसके लिए एक द्वीप, गति और प्रतिष्ठान है और वह हैधर्म ।
आप पूछेगे, धर्म क्या है ? क्योंकि 'धर्म' शब्द के बारे में आज अनेक भ्रांतियां हो रही हैं । वह अनेक प्रकार के स्वार्थ-साधनाओं का केन्द्र बन रहा है । पर मैं आपसे जिस धर्म की बात कह रहा हूं, वह बिलकुल निष्पक्ष, नि:स्वार्थ और सर्वमान्य है । वह है मनुष्य के अपने सुख के लिए, उसके अपने द्वारा अपना आत्म-नियंत्रण । दूसरों के द्वारा थोपा हुआ नियंत्रण व्यक्ति के लिए भार हो सकता है। इसलिए वह धर्म नहीं है। धर्म का किसी पर भार नहीं होता। इसीलिए अपने द्वारा किया हुआ अपना नियंत्रण ही धर्म है। मैं समझता हूं, इसमें किसी का मतद्वैध नहीं हो सकता। सारा संसार संत्रस्त है
आज अनैतिकता, हिंसा और अविश्वास इतना बढ़ गया है कि मनुष्य उससे संत्रस्त हो गया है। युग ने राजनीति को बढावा दिया, परिग्रह और भोगवृत्ति को बढावा दिया। फलतः बड़प्पन की मिथ्या धारणा को बल मिला । और आज मनुष्य यह सोचने लगा है कि चाहे कितनी भी अनैतिकता क्यों न करनी पड़े, पर वह किसी से पीछे न रह जाए। स्वार्थ के अतिरेक से आज किसी का किसी पर भी विश्वास नहीं रहा है । स्वयं अपने हाथ-पैरों पर भी मनुष्य आज विश्वास नहीं कर सकता। इससे सारा संसार अशांत है । उसे प्रतिक्षण आक्रमण का भय घेरे रहता है। जाने किस क्षण और किस तरह विश्व-युद्ध छिड़ जाए। वास्तव में यह सारा वातावरण कुछेक व्यक्तियों की अपनी ख्याति-लिप्सा का परिणाम है । पर वे यह नहीं
वर्तमान युग में अणुव्रत की अपेक्षा
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